Wednesday 30 October 2013

गलतियां गिनाने के बजाय अपनी गलतियां सुधारियें, नीतीश जी !

पटना की हुंकार रैली में नागरिकों की अपार भीड़ उमड़ी थी। मंच से कुछ ही दूरी पर बम विस्फोट हुआ था। सभा स्थल में चारों ओर जिंदा बम बिछाये गये थे। सभा स्थल के बाहर भी विस्फोट हो रहे थे। सर्वथा प्रतिकूल और विभत्स घटनाक्रम के दौरान अविचलित रह कर अपना भाषण पूरा करना मोदी के लिए साहसिक कार्य था। मोदी पूरा एक घंटा बोले, ताकि घटनाक्रम का आभास जनता को नहीं हो पाये। सभा में अफवाहे नहीं फैले। भीड़ बेकाबू नहीं हो पाये। भगदड़ नहीं मचे और भारी जन हानि को हर सम्भव टाला जा सके। ऐसी असंभावित परिस्थितियों में पसीना भी आ सकता है। नालंदा को तक्षशीला भी बोला जा सकता है। मौर्यवंश को गुप्तवंश भी कहा जा सकता है। सिकन्दर सतलुज तक आया या गंगा के मुहाने पर यह बोलने में भी गलती हो सकती है। किन्तु नीतीश जी ! आपने जो पहाड़ जैसी गलतियां की है, उस पर सफार्इ देने से क्यों बच रहे हैं ?
आतंकी आपकी नाक के नीचे योजनाएं बना रहे थे, तब आपका खुफियातंत्र और आपकी पुलिस क्या कर रही थी ? सभा स्थल में पूरे अठारह जिंदा बम मिले हैं। ये किसने और कब बिछाये इसकी जानकारी जुटाने में आपका तंत्र क्यों विफल रहा ? सभा-स्थल के बाहर एम्बुलेंसे क्यों नहीं थी ? आपको इन पुट मिले हों या नहीं, किन्तु आपको यह तो मालूम है कि मोदी आतंकियों की हिट लिस्ट में हैं और आपका बिहार आतंकवादियों के लिए सुरक्षित अभयारण्य बनता जा रहा है। माना कि मोदी से आप नफरत करते हैं और आपके राजनीतिक दुश्मन नम्बर एक हैं, किन्तु वे निर्दोष नागरिक तो आपके अपने थे, उनके जीवन को भगवान भरोसे क्यों छोड़ दिया ? यह तो भगवान का शुक्र है कि सारे बम फटे नहीं। भगदड़ नहीं मची। यदि ऐसा हो जाता तो आप सार दोष मोदी पर डाल कर स्वयं बचने की कोशिश करते। जो व्यक्ति सत्ता के नशे में इतना चूर हो जाय कि  अपने विरोधी से नफरत के कारण अपने नागरिकों का जीवन जोखिम में डाल दें, ऐसे व्यक्ति को जिम्मेदार पद पर एक क्षण भी रहने का अधिकार नहीं है।
नीतीश जी ! नरेन्द्र मोदी के साथ अभिशप्त पीड़ित  भारतीय जन जुड़ा है, जिसके मन में व्यवस्था परिवर्तन की अकुलाहट है। उनकी रैलियों में उमड़ रही लाखों की भीड़ इस बात की साक्षी दे रही है। जनता की नब्ज पहचानने वाले राजनेता हवा का रुख भांप गये हैं, परन्तु आप ऐसा क्यों नहीं कर पा रहे हैं ? आज की परिस्थितियों में भारतीय जनता धर्म और जाति के  प्रतिमानों को रौंद कर नरेन्द्र मोदी के समर्थन में खड़ा रहने के लिए आतुर दिखार्इ दे रही है। आपके बिहार में आ कर इतनी भीड़ एकत्रित करना एक करिश्मा ही कहा जायेगा। पता नहीं क्यों इस हकीकत को आप समझ नहीं पा रहे हैं ?
अब भी समय है अपना अभिमान त्याग कर अपने आपको बदल दीजिये। जनता ने आपको सिर आंखों पर बिठाया है, तो वह जमीन पर भी पटक सकती है। जिस सूखी डाली पर लटक कर अपने आपको बचाने का भरोसा रख रहे हैं, वह तो स्वयं ही टूट कर गिरने वाली है। वह भला आपका भार क्या सह पायेगी ? पूरे देश में जिन लोगों के प्रति गुस्सा भरा हुआ है, जिनसे निज़ात पाने के लिए जनता छटपटा रही है, आप उनका दामन पकड़ रहे हैं। यह राजनीतिक नादानी है- जानबूझ कर जिंदा मक्खी निगलने का उपक्रम।
यह भ्रम त्याग दीजिये कि आप उस पार्टी के सहयोग से प्रधानमंत्री बन जायेंगे। चुनावों के बाद उस पार्टी की इतनी हैसियत भी नहीं बचेगी कि वह अपना प्रधानमंत्री बना दें या किसी और को प्रधानमंत्री बनवा दें। वैसे भी आपकी लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से गिर रहा है। लोकसभा के चुनावों के बाद इसका प्रमाण आपको मिल जायेगा। आपकी पार्टी में भी बगावत की सुगबुगाहट आरम्भ  हो गयी है। यदि ऐसा हो गया तो आप प्रधानमंत्री क्या बिहार के मुख्यमंत्री भी नहीं रह पायेंगे। चौबेजी, छब्बेजी बनने जा रहे थे, वे दूबे जी बन कर रह जायेंगे।
राजनीति के खेल में दगाबाजी क्या होती है, वह कोर्इ आपसे पूछे। जिनके साथ खाया-पिया केन्द्र में और राज्य में सत्ता सुख भोगा, उससे एक झटके सारे संबंध तोड़ दिये और अब आप उस पार्टी के दुश्मन नम्बर एक बन गये हैं। वह पार्टी जब अन्य पार्टियों के लिए अछूत थी, तब उसका दामन आपने क्यों पकड़ा ? क्यों घर-घर, गली-गली उनके साथ जा कर जनता से वोट मांगें ? जनता ने आप पर भरोसा किया। आपको प्रचण्ड़ बहुमत से विजयश्री दिलायी। अब आप उसी जनता के पास जा कर कह रहे हैं कि ये हमारे दुश्मन नम्बर एक है, इनसे दूर रहो। क्या यह अवसरवादी राजनीति की पराकाष्ठा नहीं है ?
इस तथ्य को क्यों नहीं मानते कि भाजपा साथ थी, इसलिए इतने वोट मिले। बिहार में इतनी सीटे मिली। आप मुख्यमंत्री बने। भाजपा के सहयोग से आपने बिहार के विकास की गाड़ी आगे बढ़ायी। आप बिहार के विकास पुरुष कहे जाने लगे। चारों और आपकी जय-जयकार होने लगी। ऐसा होने पर आपका अभिमान बढ़ गया। आपके मन में अतृप्त महत्वाकांक्षा जगी। मुस्लिम समुदाय के थोक वोट पाने के चक्कर में आपने जानबूझ कर एक व्यक्ति को खलनायक बताते हुए उस पार्टी के सीने में खंजर भोंक दिया, जिसके अहसान से आपने इतना कुछ पाया था।
लोकतंत्र की आधारशीला नफरत पर नहीं खड़ी होती। लोकतंत्र में जनता जिसे पसंद करती है, वही सिंकदर बनता है। जिस व्यक्ति के करोड़ो  प्रशंसक है, वे उनका साथ छोड़ नहीं रहे हैं। भविष्य में यदि पूरा देश स्वीकार कर लेगा, फिर भी आप नफरत करते रहेंगे ? यह तो एक व्यक्तिगत रंजिश हो गयी, जिसका लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में कोर्इ विशेष स्थान नहीं है।
जो तूफान के आने से पहले ही उसकी आहट को भांप लेता है, वही तबाही से बच सकता है। आंखे खोल कर चारों ओर देखिये। अपनी राजनीतिक दृष्टि से जनता के रुख को समझने की कोशिश कीजिये। भारत की जनता उद्वेलित और आक्रोशित है। वह एक भ्रष्ट और निकम्मी सरकार को उखाड़ फैंकने के लिए प्रतिबद्ध दिखार्इ दे रही है। इसीलिए वह नरेन्द्र मोदी के साथ है। इसलिए नहीं कि व कट्टर हिंदूवादी है। इसलिए नहीं कि उसके हाथ साम्प्रदायिक दंगों के खून से रंगे हुए हैं। वह इसलिए साथ है कि उसे सुदृढ़ और र्इमानदार नेतृत्व चाहिये। एक स्वपन दृष्टा, संघर्षशील व्यक्तित्व चाहिये, जो भारत की जनता को संकट से बाहर निकाल सके।
अत: गलतियां गिनाने के बजाय आप अपनी गलतियों पर मंथन करते,  तो ज्यादा श्रेयस्कार रहता। बिहार में आतंकवाद डेने पसार रहा है, यह प्रदेश की शांति के लिए अशुभ संकेत है। वोटों के लिए आपके मन में इनके प्रति सहानुभूति हो सकती है। यदि यह सही है तो आप प्रदेश की जनता के साथ छल कर रहे हैं। एक कुशल प्रशासक की ऐसी प्रवृति उसके आत्मबल के दुर्बलता की द्योतक है।

Tuesday 29 October 2013

हर दुखद घटना के बाद उन्हें हिन्दू आतंकवाद की गंध क्यों आती है ?

बम धमाकों के धुंए में, जिसमें करुण चीखें और आंसुओं का सैलाब उमड़ता है। मृतकों के क्षत-विक्षत अंगों को देख कर दिल दहल जाता है। घायलों की पीड़ा से मन क्षोभ से भर जाता है। ऐसे धुंए में राजनीतिक रोटियां सेकना का निर्लज्ज प्रयास क्षुद्र राजनीति की पराकाष्ठा है। घृणित राजनीति का यह अत्यन्त ही घटियां स्तर है।  बरबस जेहन में उठते हुए ये प्रश्न व्यथीत करते हैं- ऐसी रुग्ण मानसिकता वाले व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में क्यों आये ? किसने इन्हें राजनीति में प्रवेश की अनुमति दी ? क्यों ये प्रभावी हुए और क्यों  जनता इन्हें सार्वजनिक जीवन से तिरस्कृत नहीं कर रही है ?
छल से जनहानि करने का कुत्सित व घिनौना प्रयास अक्षम्य अपराध है। ऐसे जघन्य अपराध की निंदा के बजाय बेमतलब, बेतुकी व निरर्थक बयानबाजी का क्या मतलब निकाला जा सकता है ? क्यों टीवी चेनल अपने केमरे और माइक ले कर ऐसे क्षुद्र प्रवृति के लोगों के पास दौड़ पड़ते हैं ? क्यों ये टीवी चेनल जल्दबाजी में बिना सोचे समझे और मामले की गम्भीरता को जाने उनके बयानों को देश भर में  प्रसारित कर देते हैं ? क्यों टीवी चेनल ओछी मानसिकता वाले संवेदनाशून्य राजनेताओं को टीवी स्टूडियों में एक निरर्थक और बेमतलब की बहस करने के लिए बिठाते हैं ? इस सबसे पीछे टीवी चेनलों का प्रयोजन क्या रहता है ? क्या वे हर ऐसी दुखद घटना की तह में जाने के बजाय विवादापस्पद लोगों को टीवी चेनल में ला कर मामले को हल्का बनाने की कोशिश नहीं करते हैं ?
बम्बर्इ बम ब्लासट जैसी अत्यन्त दुखद घटना के बाद भी एक महाशय को इसमें हिंदू आतंकवाद की गंध आ रही थी। फटाफट कडिया जोड़ते हुए उन्होंने एक कहानी गढ़ दी। एक देशभक्त व कर्तव्य परायण पुलिस अधिकारी, जो शहीद हो गया था, को इन्होंने जानबूझ कर खलनायक बना दिया। टीवी चेनल ने उनके  अभद्र विवरण को देश भर में प्रसारित कर दिया। जबकि ऐसे प्रसारण को रोका जाना चाहिये, जिसका कोर्इ ठोस आधार नहीं रहता है।
बम्बर्इ बम ब्लास्ट पर इन महाशय द्वारा दिये गये बयान पर पूरे देश में तीव्र प्रतिक्रिया हुर्इ फिर भी ये अपनी हरकतों से बाज नहीं आये और दिल्ली बाटला हाऊस मुठभेड़ को इन्होंने फर्जी मुठभेड़ बताया और एक जाबांज शहीद पुलिस अधिकारी की शहादत पर इन्होने प्रश्न चिन्ह लगा दिये। जानबूझ कर एक कर्तव्यपरायण अधिकारी को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया ।
सारे प्रकरण में इनके झूठ की पोल खुल जाने के बावजूद भी ये अपनी हरकतो से  बाज नहीं आये और बोद्धगया ब्लास्ट को भी इन्होंने हिन्दू आतंकवाद से जोड़ दिया। फटाफटा कड़िया जोड़ी, एक कहानी बनायी और बयान दे दिया। टीवी चेनलों ने भी इनके बयान को महत्वपूर्ण मान लिया और इसे प्रसारित कर दिया। इनके दुस्साहस से उत्साहित हो कर पटना बम ब्लास्ट के तुरन्त बाद इनके जैसे ही ओछी मानसिकता वालों ने तुरन्त बयान जारी कर दिये। मसलन – ‘ब्लास्ट भाजपा ने ही अपने राजनीतिक लाभ के लिए करवाये ।  आरएसएस का इतिहास ही ऐसी घटनाओं को अंजाम देने का रहा है। यह एक राजनीतिक “षड़यंत्र है।’ आदि आदि। इनके आत्मविश्वास से लबालब बयानो को सुन कर ऐसा लगता है, जैसे सुरक्षा ऐजेंसियों से इनपुट इन्हें राज्य सरकार से पहले ही मिल गये थे।
प्रश्न उठता है- वे जानबूझ कर झूठे दावे क्यों करते हैं ? अपनी बात के झूठा साबित होने पर देश के सामने झूठ बोलने और मामले को हल्का करने के लिए क्षमा क्यों नहीं मांगते ? चेनल बार-बार ऐसे नेताओं को क्यों महत्व देते हैं ? और वे राजनीतिक पार्टियां, जिनके ये प्रवक्ता है, इनकी जुबान पर लगाम नहीं लगाती, इससे का सीधा अर्थ है -उन पार्टियों की शह पर ही वे ऐसा करते हैं। यदि यह सही है, तो क्या उन राजनीतिक पार्टियों को जनता के वोट पाने का अधिकार हैं ?
दरअसल हिन्दू या भगवा आतंकवाद कुछ लोगों की मस्तिष्क की उपज है। आज तक भगवा आतंकवाद के संबंध में झूठी गवाहियां और मनगढंत कहानियों को न्यायालय में प्रमाणित नहीं कर पाये है। निर्दोषों को दोषी बनाने के सारे प्रयास अब तक असफल हुए हैं, फिर भी हर आतंकी घटना को भगवा आतंकवाद से जोड़ने के प्रयास के पीछे तुष्टिकरण की कलुषित नीति है। आतंकी घटना को हल्का बनाने का कुत्सित प्रयास है। इन बयानों से आतंकवादियों के हौंसले बुलंद होते है और जांच एजेंसियों के कार्य में अनाववश्यक व्यवधान पहुंचता है।  क्या ऐसे राजनेता सम्मान और आदर पाने के अधिकारी है ?
अंतत: पटना बम ब्लास्ट के पीछे जिन लोगों का हाथ था, उस रहस्य से पर्दा उठ गया। पूरा देश जिन पर संदेह कर रहा था, वह सच साबित हुआ। जिन्हें घटना को अंजाम देने के पीछे भगवा आतंकवाद की गंध आ रही थी, वे मौन हो गये। मीडिया ने भी गिरगिट तरह रंग बदल दिया। पर भगवा आतंकवाद शब्द के प्रणेता अब भी अपनी बात पर कायम है। और पूरी पार्टी उनकी धृष्टता पर मौन है।
किसी गम्भीर और दुखद घटना के घटित होने के तुरन्त बाद आरएसएस का नाम उछालने की एक प्रथा बनती जा रही है। क्या आरएसएस अपने स्वयंसेवक – मोदी की हत्या करना चाहता था ? क्या वह संगठन यह चाहता था कि रैली निरस्त हो जाय, मोदी मंच छोड़ कर भाग जाय, बम धमाकों की जानकारी भारी जनसमूह को मिल जाय, रैली में भगदड़ मच जाय और कर्इ लोग भीड़ में कुचल कर मर जाय ? सम्भवत: उन लोगों का यही मकसद था, जिन्होंने ऐसा किया, परन्तु मोदी के साहस, उनकी दबंगता ने उनके मिशन को सफल नहीं होने दिया।
ब्लास्ट की जानकारी मिलने के बाद भी मोदी अविचलित हो कर मंच पर बैठे रहे। वे मंच पर निर्भिक हो कर पूरा एक घंटा बोले। अपने ओजस्वी भाषण के दौरान उन्होंने एक भी बार बम विस्फोट का जिक्र नहीं किया। भाषण के अंत में उन्होंने जनता से शांति बनाये रखने की अपील की और सभी के  सकुशल अपने-अपने गांव और घर जाने की कामना की। मान लीजिये मंच पर मोदी के स्थान पर कोर्इ और नेता होता तो क्या होता ? मंच से भाग खड़ा होता। उसके दरबारी पूरे देश में रो रो कर अपनी पार्टी के नेता के लिए वोट मांगते।
हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं होता। उसके संस्कार उसे धोखें से निर्दोष लोगों को मारने की प्रेरणा नहीं देते। हिन्दू या भगवा आतंकवाद का कभी जन्म नहीं होगा। जिनके मस्तिष्क में यह उपजा है, उस रहस्य पर से भी एक न एक दिन पर्दा उठ जायेगा। परन्तु  हिन्दू के घर में जन्म लेने वाले जयचन्द अपनी आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बांध हर घटना के घटित होने के तुरन्त बाद हिन्दू आतंकवाद को सूंघते हैं, उनकी बुद्धि पर तरस आता है।

Monday 28 October 2013

यदि आपको वोट चाहियें, तो पहले जनता के पैसों का हिसाब दों

दोनो वक्त परभेट भोजन। सिर पर पक्की छत। बिमारी से इलाज की हैसियत। बच्चों को पढ़ाने और सामाजिक दायित्व को उठाने की हिम्मत। यह होती है एक सुखी भारतीय इंसान की पहचान। परन्तु करोड़ो भारतीय इस छोटे से सुख से वंचित है। लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तरसती है। वे अभावग्रस्त है। उन्हें नहीं लगता कि वे इस झंझाल से बाहर निकल पायेंगे और सुखी जीवन जीने के तमन्ना पूरी कर पायेंगे।
दरअसल सरकारी कर्ज चुकाते चुकाते आज करोड़ो भारतीय इस दयनीय हालत में पहुंचे हैं। सरकार गरीब भारतीय की जेब से सीधा पैसा नहीं निकालती, इसलिए उसके अदृश्य हाथ दिखायी नहीं देते।  सरकार उनकी कमार्इ का अधिकांश हिस्सा टेक्स के रुप में वसूल कर लेती है। बाज़ार में बिकने वाली हर वस्तु पर सरकार टेक्स लगाती है। उदाहरण के लिए 16-17 रुपये की लागत का पेट्रोल 75 रुपये लिटर में मिलता है। सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि सरकार पेट्रोल पर कितना टेक्स लगाती है।  अर्थात जितना ज्यादा टेक्स होगा, उतनी ही महंगार्इ होगी। जितनी महंगार्इ होगी, उतनी ही जल्दी उसकी जेब खाली होगी। जेब खाली होने पर एक चीज खरीदेगा तो दूसरी के लिए तरसेगा। यह सिलसिला बराबर चलता रहेगा।
नेताओं, नौकरशाहों की विदेश यात्राओं, सेर सपाटों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन का भार आम भारतीय नागरिक को ढोना पड़ता है।  सरकारी कार्यालयों में अपना काम कराने के लिए उसे रिश्वत और देनी पड़ती है। स्वास्थय, शिक्षा पर जो भी सरकारी खर्च करती है, उसका पैसा आम भारतीय देता हैं, किन्तु उसके बच्चों को सरकारी स्कूल के बजाय प्रार्इवेट स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजना पड़ता है, क्योंकि वहां की पढ़ार्इ का स्तर निरन्तर घटिया होता जा रहा है। इसी तरह सरकारी अस्पतालों के बजाय उसे अपना इलाज प्रार्इवेट अस्पतालों के डाक्टरों से कराना पड़ता है, क्योंकि जिस संस्था के ‘आगे’ सरकार शब्द जुड़ा है, उस पर जनता का विश्वास नहीं रहा है। तात्पर्य है कि अपनी जरुरतों के लिए सरकार को पैसा भी दों और जरुरते पूरी करने के लिए अन्य उपाय करों। इस दोहरी मार से आम भारतीय त्रस्त है।
पिछले छिंयासठ वर्षों में सरकार विकास के लिए कर्इ परियोजनाएं लायी। सरकारी उपक्रमों के हाथी पाले। इन परियोजनाओं के लिए विदशों से कर्ज लिया गया। परियोजनाओं में जितना पैसा खर्च किया गया, उससे अधिक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। सरकार से जुड़ा हुए तंत्र मालामाल हो गया। ठेकेदार ठेका लेने के लिए रिश्वत देता है। उसके द्वारा किये गये घटिया व अधिक लागत के काम को पास कराने के लिए रिश्वत बांटता है। विकास कार्य याने सार्वजनिक धन की बंदरबाट।
दुर्भाग्य से यह सारा खर्च जनता ओढ़ रही है। विदेशी कर्ज का भार, परियोजनाओं की लागत का भार, रिश्वत का भार। भार निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इस बोझ को ढो़ते-ढो़ते वह टूट गयी है। इससे निज़ात मिलने की कोर्इ सम्भावना नहीं है। क्योंकि जो लोग देश की सेवा करने के लिए राजनीतिक पार्टियां बना कर वोट लेने आते हैं, उनका मकसद  सेवा नहीं, सार्वजनिक धन और प्राकृतिक संसाधनों को लूटना है। जब तक लूटरे अपने मकसद में कामयाब होते रहेंगे, देश की गरीबी मिटेंगी नहीं। जनता के कष्ट कम होने के बजाय बढ़ते  जायेंगे। जनता हमेशा सुखी जीवन जीने के लिए तरसती रहेगी।
लूटेरे निरन्तर अपने मिशन में सफल इसलिए होते हैं, क्योंकि वे क्या कर रहे हैं और उन्होंने क्या किया है, इसे कभी जनता के समक्ष नहीं रखतें। वे कभी नहीं बताते कि देश की गरीब जनता की जेब से टेक्स के रुप में जो पैसा निकाला गया था, उसका हिसाब यह है। यह भी नहीं बताते कि कितना पैसा खर्च हुआ और कितना रिश्वत की भेंट चढ़ गया। वे सिर्फ वोटों के लिए हमारी पहचान उजागर करते हैं। यह बताते कि हमारा धर्म क्या है। जाति क्या है। हम अगड़े हैं या पिछड़े है। हम आदिवासी, दलित या स्वर्ण है।  हम किस प्रान्त में रहते हैं और कौनसी भाषा बोलते हैं। वोटों के लिए वे हमे बांटते हैं और हम बंट जाते है। वे चुनाव जीत जाते हैं। सरकार बना लेते हैं। सरकार बनाने के बाद उन्हें न तो हमारा धर्म याद रहता है और न ही जाति। उन्हें सिर्फ यह याद रहता है कि सार्वजनिक धन को कैसे लूटा जाय और कैसे अपने और अपने परिवार के लिए अकूत धन संपदा बटोरी जाय।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम लोगों की असली सूरत पहचानने में हमेश गलती करते रहें। हमारी जेब से पैसा निकाल कर समृद्ध होने वाले राजनेताओं की जनसभाओं में हम भीड़ बन कर जाते हैं और उनकी बातों पर ताली बजाते हैं। वे अब हमे आश्वस्त कर रहे हैं कि हम गरीबों के मसीहा हैं। हम देश की जनता को भूखें नहीं मरने देंगे। आधि नहीं पूरी रोटी खिलायेंगे। हम उनसे यह पूछने का साहस नहीं कर पाते कि पहले यह बताओं की हमें गरीबी किसने उपहार में दी ?  हमे कौन अब तक लूटता रहा है ? हमारी बदहाली का जिम्मेदार कौन है ? जो पार्टी और उससे जुड़े नेताओं ने  अधिकांश समय याने लगभग पचपन वर्षों तक इस देश पर शासन किया और भारत की गरीबी और अभावों के जन्मदाता है, उन्हें गरीबों के आंसू पौंछने का अधिकार हम क्यों देते हैं ? वह समय कब आयेगा जब उनकी बातें सुनना बंद करेंगे और उनसे सवाल पूछेंगे।
दस वर्षों से एक पार्टी और उसका गठबंधन सरकार चला रहे हैं। फिर अपनी सरकार बनाने के लिए अधिकार मांगने जनता के पास आ रहे हैं। क्या यह जनता को यह अधिकार नहीं है कि वह उनसे पूछे कि आपने जनता से दस वर्षों की अवधि के दौरान टेक्स के रुप में कितना धन लिया ? उस धन को कहां-कहां खर्च किया और उसके क्या सुफल प्राप्त हुए ? जनता के धन से जो आपने परियोजनाएं आरम्भ की वे पूरी हुर्इ या नहीं ? यदि नहीं हुर्इ है, तो जनता का कितना धन उसमें अटका पड़ा हुआ है ? यह बतार्इये कि आपके शासन काल के दौरान जो बड़े-बड़े ऐतिसासिक घोटाले उजागर हुए हैं, उसके कारण क्या है ? क्या सार्वजनिक धन की लूट में आपकी हिस्सेदारी नहीं है ? सच को उजागर करने में क्यों आप अवरोध खड़े कर रहे हैं ? यदि आप सच को छुपाने का प्रयास कर रहे हैं तो निश्चय ही आपकी नीयत में खोट हैं, फिर क्यों आप शासन करने का फिर अधिकार मांग रहे हैं ?
हमारे यहा परम्परा है कि बाप भी बेटे से पैसों का हिसाब पूछता है। हिसाब जानने के लिए न तो संबंधो और न ही धर्म और जाति के आधार पर छूट दी जाती है। अत: पहले हमे हमारे पैसा का हिसाब दों, फिर दूसरी बातें करों। आपका प्रतिद्वंद्वी दल कैसा है और उसके नेता कैसे हैं, उससे हमे कोर्इ मतलब नहीं। पहले हम आपके द्वारा किये गये कार्यों का विवरण मांग रहे हैं। देश की गरीब जनता का धन लूट कर उसे और गरीब बनाया है, उसका हिसाब मांग रहे हैं। यदि सार्वजनिक धन की लूट के कारण ही महंगार्इ नहीं बढ़ी है तो इस बारें में सार्वजनिक रुप से स्पष्टीकरण दें, अन्यथा यह माना जायेगा कि आप अपना अपराध स्वीकार कर रहें हैं और अपनी सफार्इ में कुछ नहीं कहना चाहते। सिर्फ साम्प्रदायिक शक्तियां और धर्मनिरपेक्षता की रट लगाने और गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने की थोथी बातें करने से काम नहीं चलेगा। एक सौ पच्चीस करोड़ भारतीय अपना भाग्य,  अरबों रुपये का राजकोष और प्राकृतिक संस्थान के कार्य निष्पादन का अधिकार जिसे सौंपेगी, तब जाति, धर्म और प्रान्त के नाम पर भावुक हो कर आपके पक्ष में निर्णय नहीं करेंगी।

कहानी एक गरीब आदिवासी भारतीय मां की भी

राजस्थान के गांव की आदिवासी बस्ती का एक कच्चा झोंपड़ा। छत पर केल्हू। दीवारें और आंगन मिट्टी का। सम्भवत: ढ़ार्इ हज़ार वर्ष पूर्व इस परिवार के पुरखे भी इसी तरह के मकानों में रहते थे। झोंपड़े के बाहर की जगह भी केल्हू से ढंकी हुर्इ थी। एक दीवार ने उसे अलग कर रखा था। परिवार के वृद्ध दंपति का यह शयन कक्ष था। आधि धोती, नंगा काला बदन। उभरी हुर्इ हड्डीया। पिचका हुआ पेट।  पोपले मुंह पर उगी सफेद दाढ़ी। लग रहा था- भरपेट भोजन किये वर्षों हो गये। वृद्ध खांसने लगा था। बहुत कोशिश करने पर अपनी खांसी पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा था। उसकी रस्सी का खाट झूला बन गया था, जो उसके खांसते हुए शरीर को सम्भालने का असफल प्रयास कर रहा था। समीप ही आंगन में चिंथड़ो पर सिकुड़ कर, उसकी वृद्धा अंधी पत्नी सोयी थी। उसकी आंखों में काला पानी आ गया था। इलाज कराने के लिए न तो पैसा था और न ही साम्मर्थय। वह अंधी हो गयी थी। जिंदगी बोझ बन गयी थी। इस जिंदगी को ढ़ोने की हिम्मत अब बची नहीं थी। मोत का इंतज़ार था, पर वह बुलाने पर भी आ नहीं रही थी।
झोंपड़े के अंदर का दृश्य। एक दीया टिमटिमा रहा था, जो घर की निर्धनता की झलक दिखा रहा था। सम्पति के नाम पर इस झोंपड़े में कुछ नहीं था, सिवाय चिंथड़ो और टूटे-फूटे एक आध एल्युमिनियम के बर्तनों के।   आंगन में नो से तीन वर्ष की आयुवर्ग के  चार बच्चे सोये थे। उनकी अवस्था से लग रहा था, इनमें से कोर्इ भी स्कूल नहीं जाता होगा। धूल से सने बाल। हाथ पावं पूरे मिट्टी से पुते हुए। तन ढंकने के कपड़े थे, जो अपना अस्तित्व बनाये रखे हुए थे। पास में सोयी उनकी मां उठ कर बैठ गयी। पैंतीस की वय होगी, परन्तु कठोर हो गये चेहरे की आभा मंद हो गयी थी। आंखों के आंसू सूख गये थे, पर अव्यक्त पीड़ा के भाव झलक रहे थे। वह इस परिवार की मुखिया बन गयी थी। जो स्वयं अपने आपको सम्भाल नहीं पा रही थी, परन्तु  उस पर छ: जिंदगियों को भार आ पड़ा था।
छ: माह पूर्व इस परिवार के मुखिया का देहांत हो गया था। उसे बुखार आया था। गांव में अस्पताल था नहीं। कर्इ देवरों के चक्कर लगाये थे, पर बिमारी ठीक नहीं हो पायी। थक हार कर पत्नी उसे बीस कोस दूर कस्बे के अस्पताल में ले गयी थी। अस्पलात में चार-पांच डाक्टरों के कमरे थे, परन्तु कमरे खुले हुए थे। कुर्सियां खाली थी। मात्र एक डाक्टर के कमरे के बाहर रोगियों की लम्बी कतार लगी हुर्इ थी। डाक्टर दो-दो मिनट में रोगियों को निपटा रहा था। लम्बी प्रतीक्षा के बाद उसका नम्बर आया। डाक्टर के रुखे भाव से उसके पति की ओर देखा। उससे मुहं खुलवाया। कलार्इ पर हाथ रखा। पत्नी बिमारी के संबंध में बोले जा रही थी, परन्तु उसकी बात सुने बिना उसने पर्ची पर दवार्इंये लिख दी और कह दिया-तीन दिन बाद आ कर दिखाना।
अस्पताल में मुफ्त दवा की व्यवस्था थी, परन्तु उस दवा को लेने के लिए भी लम्बी लार्इन थी। अंतत: उसे दो तरह की गोलियां दी गयी। बाहर नल लगा था। उसने पानी के साथ दो गोलियां पति को गटकने को दी। उसे तेज ढंड़ लग रही थी। वह बाहर के बरामदे पर सो गया। उठ कर चलने की उसकी हिम्मत नहीं थी। डाक्टर चाहता तो उसे भर्ति कर सकता था। परन्तु नहीं किया। पत्नी के आग्रह पर उठ कर चलने की कोशिश करने लगा। चलते-चलते धड़ाम से गिर पड़ा। बिना इलाज के अस्पताल के बाहर उसने दम तोड़ दिया था। अस्पताल की दीवारों पर गरीबों की सुविधाओं के कर्इ बोर्ड टंगे हुए थे। एक गरीब आदिवासी की मृत्यु ने उसके सारे दावों को भोंथरा कर दिया। सरकार को यह भी नसीसहत दे दी कि बिना प्रशासनिक व्यवस्था सुधारें लोकलुभावन कार्य बेहतर ढंग से सम्पादित  नहीं किये जा सकते।
घर के सभी सदस्यों को मजदूरी कर कमाने वाला मुखिया सभी को अनाथ बना गया। इस वज्रपात को सह कर परिवार को सम्भालने की जिम्मेदारी एक अबला पर आ पड़ी थी। मजदूरी के लिए वह पति मोत के बारह दिन बाद ही बाहर निकल गयी। पर मजदूरी भी रोज कहां मिलने वाली थी। मनरेगा में उसके सौ दिन पहले ही पूरे हो गये थे। मजदूरी मिलने पर अनाज के दाने लाती। ज्यों-त्यों घर के छ: सदस्यों का वह पेट भर पा रही है।
उसने सुना था-गरीबों को दो रुपये किलों में अनाज मिल रहा है। पर उसे बताया गया कि उसका परिवार बीपीएल परिवारों की सूचि में सम्मिलित नहीं किया गया है। वह समझ नहीं पायी कि बीपीएल आखिर किसे कहते हैं ? वह यह जानती है कि वह गरीब है और उसके घर में खाने को कुछ नहीं है। वह रोज गांव के मुखियांओं के घर चक्कर लगाती है। अपना दुखड़ा सुना कर उनसे बीपीएल का प्रमाण-पत्र मांग रही है। सभी की उसके प्रति सहानुभूति है। सभी मानते है कि वह बीपीएल है, परन्तु सरकारी खानापूर्ति में जो गलती हो गयी, उसे सुधारने में वर्षों लग सकते हैं।
एक नेता के मुहं से अपनी मां की बिमारी की कहानी सुनी थी। यह कहानी उससे अलग है। यह गरीब मां की कहानी है। इसका दर्द उसके झोंपड़े तक सिमटा हुआ है, जिसे कौन मुखर कर सकता है ? भाषणों में अपने आपको गरीबों और आदिवासियों का शुभचिंतक और उनकी भलार्इ की बातें करने वाले नेताओं को गरीबों की कहानियां कौन बताएं ? कौन उन्हें समझाये गरीबों की गरीबीं कैसे होती है ?  अभावों की पीडा का दर्द कैसे होता है ? ये लोग रोज जीते हैं और रोज मरते हैं। इनका अपना कोर्इ नहीं है।
राजस्थान में चुनाव होने वाले हैं। नेता वोटों के लिए इस दुखिया गांव भी जायेंगे। उससे वोट मांगेगे। तब वह उनसे बीपीएल का प्रमाण-पत्र मांगेगी। उसकी बात सुनी जायेगी। सम्भवत: उसकी समस्या का समाधान भी हो जायेगा। वह बीपीएल बन भी जायेगी। तब तक वह सरकारी सुविधाओं की मोहताज बनी रहेगी। परन्तु सरकार गीत गाती रहेगी। अपने आपको गरीबों का मसीहा बताती रहेगी। यह देश ऐसे ही चलता रहेगा। गरीब रहेंगे। गरीबी रहेंगे। गरीबों के नाम पर वोट मिलते रहेंगे।

साम्प्रदायिकता का राग अलापते हुए देश को लूटने का अधिकार नहीं दिया जा सकता

देश का राजनी​तिक घटनाक्रम हमें नसीहत दे रहा है– भविष्य में उन्हें ही अपना जन प्रतिनिधि चुने, जो आपके अपने हों। जिन्हें जनता के प्रति उतरदायित्व का बोध हों। जन भावनाओं के प्रति सदैव संवेदनशील रहें। जो जनता की आवाज से जुड़े न कि आवाज को दबाने का उपक्रम करें।
हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक है। हम किसी साम्राज्य या राजा की प्रजा नहीं है। हमारे संवैधानिक आधिकारों के तहत हम किसी राजनीतिक दल या गठबंधन को सरकार बनाने का अधिकार देते हैं और यदि वे हमारी कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, तो हम उनसे सरकार चलाने का अधिकार लें भी सकते हैं। दरअसल, जिन्हें लोकतंत्र में सरकार बनाने का अधिकार मिलता है, वे शासक नहीं कहलाते, वरन वे जनसेवक होते हैं। किन्तु यदि वे अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए अपने आपको शासक होने का अभिमान पाल लेते हैं और जनता और अपने बीच दूरियां बना लेते हैं, तब जनता द्वारा उनके गरुर को तोड़ना आवश्यक हो जाता है।
एक प्रश्न मन को अनायास कुरेदता है-  क्या यह देश किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष की निजी मिल्कियत है ?  यदि संवैधानिक प्रावधानों के  तहत जनता किसी पार्टी को शासन चलाने का अधिकारी सौंपती है, इसका मतलब है- अपने दायित्व को निष्ठापूर्वक निभाना, न कि उसका दुरुपयोग करते हुए देश के संसाधनों को लूटना। यदि कोई संवैधानिक संस्था सरकार की कार्य प्रणाली में दोष ढूंढती है, इसका मतलब यह नहीं होता कि आप उस संवैधानिक संस्था की जांच कार्यवाही के साथ-साथ उसके औचित्य को भी नकार दों।
मंत्रीमंड़ल पूरे देश की शासन व्यवस्था संभालता है। उसके मंत्री को संजीदा होना चाहिये। आखिर वे इतने बड़े लोकतांत्रिक देश को सम्भाल रहे हैं।  प्रधानमंत्री ने कोयला मंत्रलाय का अतिरिकत भार सम्भला। जांच में गम्भीर अनयिमितता पायी गयी, जिसे देश को कई लाख करोड़ का नुकसान हो गया। विपक्ष यदि उनसे स्तीफा मांगता है, तो इसमें गलत क्या है?  क्या यह विपक्ष का संवैधानिक अधिकार नहीं है?  विशेषरुप से देश का गृहमंत्रालय तो सबसे संवेदनशील मंत्रालय होता है, उसको सम्भालने वाला व्यक्ति किसी भी गम्भीर घटना से अपना पल्ला  यह कह कर कैसे झाड़ सकता है कि यह मेरा काम नहीं है?  ऐसा कथन एक  जिम्मेदार मंत्री की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। इसी तरह आप विधि मंत्री है, इसका मतलब यह नहीं है कि न्यायालय द्वारा किसी संस्था को सौंपी गयी जांच कार्यवाही की गोपनीय रिपोर्ट को देखें। कोयलामंत्री यह कह कर कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं कि घोटोलों का दोष हमारे मंत्रालय का नहीं  है, इसका दोषी ऊर्जा मंत्रलाय है। हैलिकोप्टर घोटाले से रक्षा मंत्री यह कह कर कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं कि सब कुछ मेरी जानकारी में नहीं हुआ है ।
कुल मिला कर सरकार का एक बेहद भद्दा व कुरुप चेहरा सामने आ गया है। जो कुछ घटित हो रहा है, वह यह दर्शाता है कि जो लोग सरकार चला रहे हैं, उनकी मानसिकता इस देश की जनता को ठगने की है। संवैधानिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली की जानबूझ उपेक्षा करना, उनकी अभिमानी और कुटिल प्रवृति को दर्शाता है। यदि साम्प्रदायिक शक्तियों को सता से दूर रहने का नारा लगा कर अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास कर रहे हैं, तो यह देश की जनता को दिया जाने वाला एक अशिष्ट धोखा है। आखिर कब तक आप धर्म निरेपक्षता और साम्प्रदायिकता की रट लगा कर  देश को लूटते रहेंगे।
यदि जनता अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग नहीं रहेगी और ऐसे राजनीतिक दल और गठबंधन को पुन: सता सौंप देगी, तब उसका अभिमान निरंकुशता में तब्दील हो जायेगा। निरंकुश शासक कभी जनसेवक नहीं बन सकता। वह जन भावना के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। वह लोकतंत्र का उपयोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए करता है। जनता को वह अपनी प्रजा समझता है और उस पर शासन करना अपना अधिकार मानता है।
सरकार में बैठे नेताओं को यह विश्वास है कि दिल्ली में लाखों लोगों की भीड़ इकट्ठा करने से उनकी सेहत पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पडे़गा। भारत में चुनाव जीतने के लिए धन चाहिये, जिसकी उनके पास कोई कमी नहीं है। पूरे देश में उनका वोट बैंक है, जो उन्हें छोड़ कर कहीं जायेगा नहीं। उनके नियंत्रण में सरकारी जांच एजेंसियां है, जिसके माध्यम से वे अपने विरोधियों को दबा सकते हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय माध्यम से अपने पक्ष में वातावरण बना सकते हैं। अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट सकते हैं। यदि ऐसी स्थिति बन जाये कि सरकार बनाने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं मिल पाये, तब औद्याोगिक घरानों के सपोर्ट और धन से सांसदों को खरीद कर सरकार बना सकते हैं। अर्थात भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को इतना विकृत कर दिया है कि सता पर नियंत्रण ही मुख्य लक्ष्य रह गया है। सता में आ कर देश की सेवा के भाव को पूर्णतया भुला दिया गया है।
किसी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए ये अशुभ संकेत है। अत: भारतीय जनता को  यह संकल्प लेना चाहिये कि हम अब उन्हें कभी नहीं चुनेंगे जिनकी नीयत में खोट हो। जो देश की जनता के लिए नहीं अपने लिए जीते हों। हम भारतीय नागरिक धर्म, जाति और प्रादेशिक भाव को भुला कर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को जीवंत बनाने के लिए आपस में जुड़ जायेंगे। राजनीतिक दलों के उन नुस्खों को असफल कर देंगे, जिसकों आधार बना कर वे चुनाव जीत जाते हैं। हम पूरे देश में छोटी-छोटी नागरिक समीतियां बनायेंगे। इनको आपस में जोंडेंगे और इन्हें इतना सशक्त बनायेंगे कि कोई भी व्यक्ति इनके समर्थन के बिना पूरे देश में कहीं भी चुनाव नहीं जीत सके। हम अब संसद और विधानसभाओं में उन व्यक्तियों को भेजेंगे जिनके मन में जन सेवा का भाव हो। उन्हें नहीं जो धूर्तता, चाटुकारिता और छल-कपट करने में निष्णात हों। अब सता से कुछ मांगने के लिए याचक बन कर सड़को पर इकट्ठा नहीं होंगे, वरन उन्हें सता से सड़क पर ले आयेंगे, जो जनता के सेवक बनने के बजाय अपने आपको जनता का शासक समझेंगे।
सब कुछ संभव है, यदि अब भी जनता जागरुक हो कर व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध हो जाय। एक सड़ी हुई व्यवस्था को नकार दें  ।

Thursday 24 October 2013

मोदी और भाजपा नहीं, तो फिर कौन……….. ?

मोदी और भाजपा को यदि जनता व्यापक समर्थन नहीं देंगी, तो फिर किसे देगी ? फिर उसी मां-पुत्र की जोड़ी और उससे जुड़ी दरबारियों की चौकड़ी को या तीसरे मोर्चे की खिचड़ी को  ? दरअसल दस वर्ष के कुशासन का दर्द जनता भोग रही है, फिर उसी विकल्प को चुनना उसके लिए दुखदायी होगा। यह शब्दाडम्बर नहीं, हकीकत है- यदि ऐसा होता है तो देश विनाश के गर्त में गिर जायेगा। लोकतांत्रिक परम्पराओं पर गहरा आघात लगेगा। देश बर्बादी और कंगाली के कगार पर पहुंच जायेगा। संवैधानिक संस्थाओं के आगे से ‘संवैधानिक’ शब्द हटा कर ‘अनुचर’ शब्द  जोड़ना पडे़गा। अर्थात संवैधानिक संस्थाएं अनुचार संस्थाएं बन जायेगी।
यदि पार्टी के युवराज को सम्राट बना कर राज तिलक कर दिया गया, तो यह भारत के इतिहास की एक अशुभ घड़ी होगी। लोकतंत्र का सूरज अस्ताचल को चला जायेगा और राजतंत्र का सूर्योदय होगा। जनता सम्राट के दर्शन के लिए तरस जायेगी। सम्राट न तो संकट की घड़ी में कोर्इ निर्णय लेंगे और न ही देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए माथा-पच्ची करेंगा। वे पद पा कर संतुष्ट हो जायेंगे। आधा समय वे विदेशों की सेर सपाटों में गुजारेंगे। राजमाता अपने दरबारिंयो की सलाह से राजकार्य सम्भालेंगी।
एक अन्य विकल्प है- मुलायम सिंह यादव और उनके तीसरे मोर्चे की खिचड़ी। इस खिचड़ी के पकने की सम्भावना बहुत कम हैं, क्योंकि न तो हंड़िया का जुगाड़ कर पायेंगे ओर न ही चांवल का । अत: खिचड़ी ख्यालों में ही पकेगी और यदा-कदा वे इसका ज़िक्र करते रहेंगे। परन्तु प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा मुलायम सिंह जी के मन में हमेशा दबी रहेगी। यदि कांग्रेस  इतनी कमज़ोर हो जायेगी कि वह सरकार बनाने में पूर्णतया असमर्थ रहेगी, तब सांम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर करने के लिए मुलायम सिंह जी को चौधरी चरण सिंह या चन्द्रशेखर बना देगी। यदि ऐसी सरकार किसी भी तरह बन भी गयी, तो यह देश के लिए दुर्भाग्यजनक स्थिति होगी। क्योंकि सरकार बनेगी भी गिरने के लिए। उम्र बहुत छोटी होगी। आज चल गयी तो कल गिरने की सम्भावना  रहेगी।  अस्थिर सरकारें हमेशा घातक होती हैं, क्योंकि वे अपनी कोर्इ नीतियां नहीं बना पाती। उन्हें लागू नहीं कर पाती । हमेशा सहमी-सहमी रहती है। भारत की जनता ऐसी परिस्थितियां पैदा नहीं करेंगी, ऐसी आशा है।
अत: अब एक ही अंतिम विकल्प हमारे पास बचा है- इस बार मोदी और उनकी  भाजपा  को मौका देने का ।  भारत के राजनैतिक विश्लेषक, विचारक और मीडिया इस उत्तर को स्वीकार नहीं करेंगे। जनता की मन: स्थिति समझे बिना, वह अपने विचारों को ही अभिव्यक्त करेंगे। अधिकांश का मत एकपक्षीय होगा और वे किसी एक रणनीति के तरह मंथन करते हुए दिखार्इ देंगे। परन्तु वास्तविकता यह है कि भारत को इस समय एक स्थिर, मजबूत और संवेदनशील सरकार चाहिये, जो पूरे मनोयोग से देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपना दायित्व निभायें।
परन्तु विडम्बना यह है कि भाजपा सभी जगह नहीं है और जहां है, वहां कांग्रेस से उसका कड़ा मुकाबला है। भाजपा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है। जहां पर भाजपा का कांगेस से सीधा मुकाबला है, वहां उसका पूरी तरह सफाया कर दिया जाय, तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी, जो उसे सत्ता के नज़दीक ले जायेगी। सत्ता पाने की उसकी राह आसान हो जायेगी। आशा है भाजपा अपनी रैलियों के अभियान के समाप्त होने के बाद इसी रणनीति पर काम करेगी, तो यह ज्यादा श्रेयस्कर होगा।
कांग्रेस बिहार और उत्तरप्रदेश में हाथ पैर मार रही है, किन्तु उसके सपने साकार नहीं होंगे। मुजफ्फनगर जा कर पीड़ितो के आंसू पौंछने और मायावती को दलितों का नेता नहीं मानने से ऐसा कुछ नहीं होगा कि उसकी बार्इस सीटों में और वृद्धि हो जायेगी। वह अपनी आधि सीटें भी बचा लेंगी तो वह  गनीमत होगा। नीतीश कुमार की मित्रता से कोर्इ लाभ होने वाला नहीं है। ममता और पटनायक अपने किले में उसे सेंध लगाने नहीं देंगे। आंध्र का किला वैसे भी ढह रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद एक मौसमी पार्टी का अंत हो जायेगा। इसके बाद दिल्ली जीतना कांग्रेस के लिये आसान नहीं होगा। कर्नाटक और केरल से थोड़ी बहुत आशाएं बची है, परन्तु  राजस्थान, मघ्यप्रदेश और गुजरात में पहले जैसी स्थिति नहीं बनेगी।
अत: देखा जाय तो कांग्रेस के लिए परिस्थितियां सभी जगह प्रतिकूल बन रही है और भाजपा के लिए अनुकूल, किन्तु भाजपा  मोदी की रैलियों में उमड़ रही भीड़ को देख कर मस्त हो रही है और उसके नेताओं को जनता के पास जाने का अभी तक समय नहीं मिल रहा है। कुशासन से असंतुष्ट भारतीय जनता मोदी की को हीरो बना रही है, किन्तु लाखों शहरी जनता के आधार पर चुनाव नहीं जीते जाते। चुनाव जीतने के लिए करोड़ो मतदाताओं को अपने से जोड़ना पड़ता है। सघन रचनात्मक अभियान से ही यह सम्भव हो सकता है।
राष्ट्र को संकट से बाहर निकालने के भाजपा नेता सक्षम हैं, किन्तु अपनी क्षमता का उपयोग करने के लिए पता नहीं क्यों उन्हें परहेज हैं। राजस्थान और दिल्ली को पुन: जीतना और मघ्यप्रदेश और छतीसगढ़ में से किसी एक प्रदेश को हथियाना कांग्रेस की रणनीति का एक भाग है और इस पर कांग्रेसी परिश्रम भी कर रहे हैं। किन्तु भाजपा नेताओं की यह सोच है कि हम अपने दोनों प्रदेशों में वापस जीत लेंगे और कांग्रेस के प्रदेश उससे छीन लेंगे।  किन्तु यह अति आत्मविश्वास की पराकाष्ठा है। राजनीति में अति आत्मविश्वास घातक होता है। भाजपा पहले भी चोट खा चुकी है, किन्तु नहीं सम्भलने की उसने कसम भी खा रखी है।
एक बड़ी नाव में मौदी बिठा कर उसके हाथ में चप्पु थमाने से नाव किनारे पर नहीं पहुंचेगी। सभी का सहयोग ही उसे किनारे तक पहुंचायेगा। किन्तु अपने नेता की जय-जयकार करने के बजाय अपने हाथों में पकड़े हुए चप्पुओ को भी चलाना आवश्यक होता है। मोदी के अनुयायी तो जनता और कार्यकर्ता बन जायेंगे, किन्तु भाजपा नेताओं का उनका सहयोगी बन कर कठोर परिश्रम करने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर निकलना पड़ेगा। दो बार धोखा चुके हैं, अब यदि तीसरी बार धोखा खा गये, तो यह धोखा न केवल पार्टी के लिए वरन इस देश की जनता के लिए भी बहुत बड़ा आघात होगा। अत: भाजपा नेताओं को अपने लिए नहीं, अपनी पार्टी के लिए नहीं, देश के लिए चिंतित होना आवश्यक है। हवा में कुलांचे भरने से मंजिल नही मिलती। मंजिल पाने के लिए एक -एक कदम सोच समझ कर रखा जाता है, जिससे लक्ष्य आसान बन जाता है।
यह सब कुछ इसलिए लिखा गया है, क्योंकि राजस्थान में जहां विधानसभा के चुनाव होने वालें हैं, कांग्रेस ने अपनी ताकत झोंक दी है, किन्तु भाजपा नेता अभी किनारे खड़े लहरे ही गिन रहे हैं। यदि ऐसी ही स्थिति लोकसभा चुनावों के दौरान बन गयी, तो यह स्थिति दुर्भाग्यजनक होगी। इस समय मोदी और भाजपा को सत्ता पाने की ललक हो सकती है, परन्तु भारत की जनता को एक शासन को उखाड़ने के लिए भाजपा और मोदी की जरुरत है। अत: उन्हें देश की नब्ज को पहचानते हुए जनता से अपने आपको जोड़ने और उसे अपनी बात समझाने के लिए गम्भीर प्रयास प्रारम्भ कर देने चाहिये।       लक्ष्य पाने की आशा संजोय रहने के बजाय लक्ष्य तक पहुंचने के गम्भीर प्रयास ही लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायक बनते हैं।

सत्ता का जहर पीने की लिए अकुलाहट है, तो मृत्यु से भय क्यों ?

सत्ता जहर है और इस जहर की पीने की अकुलाहट भी है, फिर मृत्यु से इतने भयभीत क्यों हो रहे हैं, राहुल ? स्टेरिंग हाथ में पकड़ने से दुर्घटना की जोखिम तो रहती है। यदि डर लगता है, तो पैदल चलो। किसने स्टेरिंग पकड़ने की कसम दिलायी है। सेना और पुलिस में भर्ती होने वालें जवानों को मालूम है कि कभी भी गोली  लग सकती है, फिर भी वे इस कर्म को चुनते हैं, क्योंकि उनके मन में कर्म की प्रधानता होती है, मृत्यु से भय नहीं। दुनियां में आये हैं, तो जाने की तैयारी भी करनी  ही है। क्योंकि जन्म के साथ मृत्यु भी नत्थी हो कर आती है। अब यह किस रुप में आयेगी, यह कोर्इ नहीं जानता।
राजनीति की ज़मीन बहुत रपटीली होती है। फिसल कर जख्मी होने की सम्भावना बनी रहती है। जो कर्मयोगी होते हैं, वे अपनी धुन के पक्के होते हैं। उनमें आगे बढ़ने का जज़्बा होता है। उन्हें कभी मृत्यु का भय नहीं सताता। वे इसे अवरोध भी नहीं मानते। जिन के मन में फिसल कर जख्मी होने का डर रहता है, वे इस मार्ग को नहीं चुनते। वे सीधे सपाट मार्ग पर ही चलते हैं। परन्तु कोर्इ अपने लिए रपटीला मार्ग ही चुनता है। फिसलन का भय दूसरों को दिखा कर अपने लिए सहानुभूति बटोरना चाहता है, तो यह निरा पागलपन है। यह कहना कि मेरी दादी और पापा भी इसी मार्ग पर चलते हुए शहीद हो गये और  मेरे साथ भी ऐसा ही हो सकता है, अपरिपक्क मन:स्थिति को दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति के हाथों मे यदि करोड़ो भारतीय अपना भाग्य और भविष्य सौंप देंगे, तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल होगी।
सत्ता के शीर्ष पर बैठ कर लिया जाने वाला प्रत्येक निर्णय करोड़ो देशवासियों को प्रभावित करता है। किसी निर्णय से  करोड़ो लोग आहत हो सकते हैं। उनके मन में अपने नेता के प्रति क्रोध का भाव उत्पन्न हो सकता है। क्रोध   विवेक को मंद कर देता और जुनून जागृत करता है। जुनून अंधा होता है, उसे उचित अनुचित का भान नहीं रहता। ब्लयू स्टार ऑपरेशन का निर्णय इंदिरा जी के जीवन के लिए घातक बन गया। उनका सुरक्षाकर्मी भी आहत सिख था, वह अपने अंधे जुनून में वह सब कुछ कर बैठा जो उसे नहीं करना था।
इंदिरा जी यदि अपने  सियासी लाभ के लिये एक जोखिम भरी राह नहीं पकड़ती, तो उन्हें ब्लयू स्टार ऑपरेशन का निर्णय नहीं लेना पड़ता। ब्लयू-स्टार ऑपरेशन नहीं होता, तो उनकी हत्या नहीं होती।  उन्होंने पंजाब के 48 प्रतिशत हिन्दुओं के थोक वोट पाने और अकालियों की शक्ति क्षीण करने के लिए भिंडरवाला का भूत तैयार किया था, जो अंतत: नियंत्रण से बाहर हो गया और उसे समाप्त करने के लिए एक अप्रिय निर्णय लेना पड़ा।
यदि राजीव गांधी तमिलों का संहार करने के लिए भारतीय सेना को नहीं भेजते, तो उन्हें तमिल नागरिकों का क्रोध नही झेलना पड़ता। इतिहास ने उनके इस निर्णय को बचकाना व नासमझी भरा निर्णय माना है। उनके इस निर्णय और परिणाम से तमिल टाइगर का क्रोध भड़क गया था, जिसकी एक दुखद परिणति हुर्इ। अपनी इस राजनीतिक भूल के कारण ही राजीव गांधी को अपना जीवन खोना पड़ा।
अपनी दादी और पापा  की हत्या का प्रसंग छेड़ कर राहुल देश की जनता की सहानुभूति बटोरने का प्रयास कर रहे हैं,  किन्तु उन्हें भारत के इतिहास में घटित हुर्इ घटनाओं का एकाग्रता से अध्ययन करना चाहिये और उन घटनाओं से यह प्रेरणा लेनी चाहिये कि यदि सत्ता मिलती है, तो जो भी निर्णय लेंगे, बहुत सोच समझ कर लेंगे। वे ऐसा कोर्इ निर्णय नहीं लेंगे, जिससे जनता आहत होती है।
इंदिरा जी और राजीव जी की हत्याओं से पूरा देश संतप्त हुआ था। अपने प्रिय नेताओं को खोने से कराड़ो भारतवासियों के दिलें पर चोट पहुंची थी। दोनेा दुखद घटनाएं थी। वे राष्ट्रीय नेता थे। राष्ट्र की निधि थे। पूरे राष्ट्र का उन पर अधिकार था। उन्हे एक परिवार की निजी सम्पति मान कर राजनीति करना, क्षुद्र कोशिश है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनका कोर्इ भी परिजन सहानुभूति पाने के लिए जनता के बीच नहीं आया। किसी के मन में राजनेता बनने की महत्वाकांक्षा नहीं जगी। यह उस परिवार द्वारा देश के लिए किया गया सबसे बड़ा त्याग है। राहुल को महात्मागांधी के परिवार से नसीहत लेनी चाहिये।
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में कर्म और सेवा भाव की प्रधानता होती है। इसके द्वारा ही जनता का दिल जीता जाता है। शासन करने के लिए उससे आदेश मांगा जा सकता है। सत्ता मिलने के बाद यदि पुन: सत्ता में आना है तो अपनी उपलब्धियों की सविस्तार व्याख्या कर के जनता को समझाना पड़ता है और सिद्ध करना रहता है कि हम अपनी कसौटी पर खरे उतरे हैं। हमने पूरी निष्ठा से देश की सेवा की है। इसलिए पुन: सत्ता पाने का अधिकार मांगने आपके पास आये हैं।
राहुल के पास उपलब्धियां बताने के लिए शब्दों का अकाल है, इसलिए विवश हो कर अपनी दादी और पापा की हत्याओं की याद दिला कर जनता को अपने साथ भावनाओं में बहने का आग्रह कर रहे हैं। उन्हें शायद नही मालूम कि वह किसी नाटक का मंच नहीं राजनीतिक मंच हैं, जिस पर खड़े हो कर  विचार प्रकट किये जाते हैं, अभिनय नहीं किया जाता। जनता को अपनी और अपने परिवार की कहानियां नहीं सुनायी जाती।  अपनी भावी जन-प्रिय योजनाओं का वर्णन किया जाता है। जनता को आश्वस्त किया जाता है कि यदि हमें जनसेवा का अधिकार सौंपा जायेगा, तो पूरी प्रतिबद्धता से काम करेंगे। राजनीतिक मंच पर आ कर   भावुक अभिनय कर के जनता को रुलाने की कोशिश नहीं की जाती। जो बीत गया है, वह इतिहास बन गया है। हमे इतिहास से नसीहत ले कर भविष्य की योजनाएं बनानी चाहिये। बार-बार इतिहास की दुखद घटनाओं को याद नहीं किया जाता।
जो सार्वजनिक जीवन में आने का निर्णय लेते हैं, उनके लिए पूरा देश ही अपना परिवार बन जाता है। हर मां की आंसू पर उसके मन में पीड़ा जगती है। देशवासियों की बिमारी और कष्टों से उसका जुड़ाव हो जाता है। ऐसा कोर्इ व्यक्ति सिर्फ अपनी मां की बिमारी को ले कर आहत और दुखी नहीं होता। दुनियां में अब तक ऐसा कोर्इ परिवार नहीं हुआ जिसने कभी बिमारी की पीड़ा नहीं भोगी। शरीर में व्याधियों का होना कोर्इ अस्वाभिवक घटना नहीं है। कभी-कभी जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब रोगी हो कर अपने कार्य को अंजाम देने का प्रयास किया जाता है। हमारे दैनिक जीवन में ऐसी घटनाएं घटती रहती है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया हैं। राहुल अपनी मां की बिमारी की कहानी सुना कर आखिर देश को कहना क्या चाहते हैं ? जो राजनीति को सेवाभाव से नहीं लेते, उनके मन में ऐसे विचार आते हैं।

Wednesday 23 October 2013

प्रधानमंत्री जी! कृपया जाते-जाते वह सच बता दीजिये, जिसे पूरा देश जानना चाहता है

श्रद्धेय मनमोहन सिंह जी,
जीवन में आपने  कर्मयोग से जो कुछ पाया था, राजनीति की गंदगी में डूबकी लगा कर सब कुछ गवां बैठे हैं। आपकी सादगी, सच्चार्इ और र्इमानदारी युक्त उजली छवि पर कालिख पुत गयी। यह भाग्य की विडम्बना ही है कि आत्मविश्वास से लबालब 1991 का दबंग अर्थशास्त्री वित्तमंत्री, जिसका व्यक्तित्व प्रबल संकल्प शक्ति से दैदिप्यमान था, 2013 में एक थकाहारा मुसाफिर लग रहा है। एक ऐसा मुसाफिर, जो राजनीति के सफर में अपने जीवन भर की कमार्इ खो चुका है। अब लुटा-पिटा, थका-हारा, बुझा-बुझा सा अपने घर लौटने को आतुर लग रहा है।
देश की जनता आपके साथ पूरी सहानुभूति रखती है। यह भी सच है कि कोयले के बवंड़र में आपको चतुरार्इ से झोका गया है। आपके साथ ऐसा क्यों किया गया, यह सच जनता के समक्ष उगल दीजिये। देश की जनता आपको क्षमा कर देगी,  परन्तु आप ऐसा करेंगे नहीं, क्योंकि आप राजनेता है नहीं, बनाये गये हैं।  नियति ने आपको नौकरशाह बनाया था, किन्तु भाग्य ने आपको प्रधानमंत्री बना दिया। आप जन नेता नहीं है। आपने आज तक किसी जन आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया। ओज पूर्ण भाषण से भीड़ को बांधने की क्षमता आप में नहीं है। अपने वाक-चार्तुय से संसद को मंत्रमुग्ध नहीं कर सकते। आप अपने प्रभाव से लोक सभा का चुनाव नही जीत सकते। अपने व्यक्तिगत प्रभाव से मात्र दो सांसदों को जीतवा कर संसद में नहीं भेज सकते। फिर भी आप भारतीय संसद के नेता है। इस देश की निर्धन और अभावग्रस्त जनता के भाग्य विधाता है।
भारतीय संस्कृति ने भौतिक सुख के बजाय आंतरिक सुख अर्थात आध्यात्मिक सुख को ज्यादा महत्व दिया है। बुद्ध ने युवावस्था में ही संसार की नि:सारता का अनुभव कर वानप्रस्थ ले लिया था। पांडवों ने युद्ध के बाद हाहाकर और तबाही को देख, अशांत मन से राजसुख भोगने का विचार त्याग दिया और हिमालय चले गये। आपकी स्थिति भी पांडवों जैसी ही है। पांडवों ने जो तबाही देखी, वह एक भयावह युद्ध की परिणिति थी ।  आप घोटालों और घपलों की विभिषीका से देश को आर्थिक दृष्टि से  तबाह कर के जायेंगे।  जहां पांडवों ने राजसुख स्वैच्छा से त्याग दिया था, परन्तु आप तबाही के मंजर को अपने सामने देखने के बाद भी ऐसा साहस नहीं कर पा रहे हैं।
वस्तुत: आप भारतीय इतिहास के सर्वाधिक घोटालों और घपलों वाली सरकार के शहशांह कहे जाते हैं।  आप ऐसी सरकार के मुखिया है, जो घोटाले के सच के उजागर होने के बाद भी उसे स्वीकार नहीं करती और नग्न सच को दबाने की भरसक कोशिश करती है। परन्तु सच को जितना ज्यादा छुपाया जाता है, वह ज्यादा सामने आता है। वह आता भले ही धीमे कदमों से, पर आता जरुर है। और जब आयेगा तो सारी स्थिति साफ हो जायेगी। मान लीजिये कि केन्द्र में एक ऐसी सरकार आ जायेगी, जिसकी कार्य प्रणाली स्वच्छ और पारदर्शी होगी और वह सारे घपलों -धोटालों की निष्पक्ष जांच करवा देगी, तब जो सच सामने आयेगा, उससे कितनी किरकिरी होगी, इसका सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है।
पिछले नो वर्षों के समय को निकाल दें, तो आपका अब तक का जीवन एक कर्मयोगी का रहा है। परन्तु पिछले नो वर्षों से मौन- योगी बन गये हैं, जो सब कुछ देखते हैं, समझते हैं और उन्हें यह भी जानते हैं कि जो भी कुछ घटित हो रहा है, उसे रोका नहीं गया तो अनर्थ हो जायेगा, फिर भी मौनव्रत धारण कर रखा है।  आपकी चुप्पी के बारें में देश-विदेश में काफी कटा़क्ष हुए थे, परन्तु आपकी चुप्पी टूटी नहीं ।
सामान्य श्रेणी के अपराध के परिणाम से एक या दो व्यक्ति या एक परिवार प्रभावित होता है, वहीं आर्थिक अपराध के परिणाम की त्रासदी करोडो लोगों को भोगनी पड़ती है। विडम्बना यह है कि अन्य अपराध पर सजा हो जाती है, परन्तु आर्थिक अपराध के अपराधी कानून की गलियों से बच कर निकल जाते हैं, उन्हें सजा नहीं हो पाती। यही कारण है कि वे भयमुक्त होते हैं, उन्हें अपराध करने में कोई हिचक नहीं होती और बैखोप हो कर ऐसा करते हैं। वैसे भी ये अपराधी ऊंचे रसुख वाले होते हैं और राजनेताओं के प्रश्रय से उनके होंसले बुलंद होते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि अर्थशास्त्री होते हुए भी आपने आर्थिक अपराधों को पनपने क्यों दिया ? इस पर अंकुश क्यों नहीं लगा पाये ? अपकी ऐसी क्या विवशता थी कि आपने सब कुछ देखते हुए भी अपनी आंखें बंद कर ली ? जब कि आपको यह भी मालूम है कि आर्थिक अपराध से देश को भारी कीमत चुकानी पड़ती है। राजकोषीय घाटा बढ़ता है। मुद्रास्फिति बढ़ती है। महंगाई बेलगाम हो जाती है। देश के करोडों लोगों का जीवन-स्तर  गरीबी  रेखा के नीचे चला जाता है।
आपके कार्यकाल के पहले घोटाले के उजागर होने और उसके सुर्खियों में आते ही आप अपने पद की गरिमा के अनुरुप सख्ती दिखाते और निष्पक्ष जांच कराने के  लिए किसी भी दबाव के समक्ष नहीं झुकते, तो जनता के बीच आप की स्वच्छ व उज्जवल छवि बन जाती। हो सकता है, आपको पद छोड़ने के लिए विवश किया जाता, परन्तु वह आपकी नैतिक जीत होती। आपने अपने जीवन में बहुत कुछ कमाया है और देश की गरीब जनता के लिए कुछ खो भी देते, तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। आपका वानप्रस्थ सुख, शांति से गुजरता। आप वृद्धावस्था में एक तनावरहित जीवन जीते। मन पर एक बोझ नहीं रहता , जो अब आप ले कर जायेंगे।
जो कुछ अप्रिय घटनाक्रम सिलसिलेबार घटित हो रहा है, उसे सुन कर, पढ़ कर और देख कर ऐसा लग रहा है, जैसे भारत की राजनीतिक व्यवस्था भयंकर सडांध मार रही है, जिसकी दुर्गन्ध पूरे देश में फैल रही है। सरकारी सरंक्षण में खुली और स्वच्छन्द लूट और पकडे़ जाने पर अपराधबोध या ग्लानी  के बजाय अभिमानी और आतंकी तेवर, नि:संदेह सडांध को और ज्यादा फैला रहा है। यह इस सदी की सबसे बडी़ त्रासदी है, जिसने हमारी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। दु:ख इस बात का है कि भारतीय इतिहास की इस घृणास्पद कहानी के आप मुख्य पात्र हैं।  पता नहीं क्यों आरोपों की बौछारों के बीच निर्विकार बैठे अपने पद को त्यागने का मोह  नहीं छोड़ पा रहे हैं।  जीवन की वानप्रस्थ अवस्था में कुटिल प्रवृति के तानाशाहों से तो यह अपेक्षा की जा सकती है, किन्तु एक सात्विक प्रवृति के कर्मयोगी से नहीं ।
ईश्वर की आप पर विशेष अनुकम्पा है। वस्तुत: आप मुकद्दर के सिकन्दर हैं। सम्भव है ईश्वर आपकी झोली में अकूत खजाना डाल आपके तप की परीक्षा ले रहा है।  अत: मेरी आपसे छोटी सी  विनती है, उस सर्वशक्तिमान प्रभु को स्मरण करते हुए, अपने नो वर्षों के कार्यकाल में, जिस हकीकत से रुबरु हुए हैं, उसे अपने भीतर दबाने के बजाय- देश के सामने बयान कर दीजिये। उन सभी खल पात्रों के नाम उजागर कीजिये, जो इस देश की गरीब जनता का धन लूटने में अग्रणी बने हुए हैं। और जिनके कारण हम भारतीय, कष्टदायक जिंदगी जी रहे हैं।
अगर आप ऐसा करेंगे तो एक भूचाल आ जायेगा। पूरा राष्ट्र आपके पीछे खड़ा हो जायेगा। हो सकता है ऐसा करने पर आपका ईश्वर कृपा से मिला पद छीन लिया जाय, किन्तु आपका नाम सदा श्रद्धा से याद किया जायेगा। इतिहास के पन्नों पर आप अमर हो जायेंगे।  यदि आप चुप्पी साधें रहेंगे और अंतरआत्मा की आवाज को दबाते हुए दूसरों के लिखे हुए संवाद पढते रहेंगे, तो आपका नाम भारत के इतिहास की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रधानमंत्री के रुप में याद किया जायेगा। इतिहास के पन्नों पर आपके नाम के बाद लिखा जायेगा- एक कमजोर और बेबस प्रधानमंत्री।
हम इस संसार में अमरत्व का फल खा कर नहीं आयें है।  हमारा जीवन बहुत छोटा है। हमे इस संसार में पॉंच सौ वर्षो  तक नहीं रहना है। ईश्वर हमें कुछ देता है, तो साथ-साथ हमारी परीक्षा भी लेता रहता है।  इसलिए आप से मेरा पुन: अनुरोध है – वह छुपा हुआ सच उगल दीजिये, जिसे राष्ट्र जानना चाहता है।

Monday 14 October 2013

साम्प्रदायिकता का राग अलापते हुए देश को लूटने का अधिकार नहीं दिया जा सकता

देश का राजनी​तिक घटनाक्रम हमें नसीहत दे रहा है– भविष्य में उन्हें ही अपना जन प्रतिनिधि चुने, जो आपके अपने हों। जिन्हें जनता के प्रति उतरदायित्व का बोध हों। जन भावनाओं के प्रति सदैव संवेदनशील रहें। जो जनता की आवाज से जुड़े न कि आवाज को दबाने का उपक्रम करें।
हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक है। हम किसी साम्राज्य या राजा की प्रजा नहीं है। हमारे संवैधानिक आधिकारों के तहत हम किसी राजनीतिक दल या गठबंधन को सरकार बनाने का अधिकार देते हैं और यदि वे हमारी कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, तो हम उनसे सरकार चलाने का अधिकार लें भी सकते हैं। दरअसल, जिन्हें लोकतंत्र में सरकार बनाने का अधिकार मिलता है, वे शासक नहीं कहलाते, वरन वे जनसेवक होते हैं। किन्तु यदि वे अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए अपने आपको शासक होने का अभिमान पाल लेते हैं और जनता और अपने बीच दूरियां बना लेते हैं, तब जनता द्वारा उनके गरुर को तोड़ना आवश्यक हो जाता है।
एक प्रश्न मन को अनायास कुरेदता है-  क्या यह देश किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष की निजी मिल्कियत है ?  यदि संवैधानिक प्रावधानों के  तहत जनता किसी पार्टी को शासन चलाने का अधिकारी सौंपती है, इसका मतलब है- अपने दायित्व को निष्ठापूर्वक निभाना, न कि उसका दुरुपयोग करते हुए देश के संसाधनों को लूटना। यदि कोई संवैधानिक संस्था सरकार की कार्य प्रणाली में दोष ढूंढती है, इसका मतलब यह नहीं होता कि आप उस संवैधानिक संस्था की जांच कार्यवाही के साथ-साथ उसके औचित्य को भी नकार दों।
मंत्रीमंड़ल पूरे देश की शासन व्यवस्था संभालता है। उसके मंत्री को संजीदा होना चाहिये। आखिर वे इतने बड़े लोकतांत्रिक देश को सम्भाल रहे हैं।  प्रधानमंत्री ने कोयला मंत्रलाय का अतिरिकत भार सम्भला। जांच में गम्भीर अनयिमितता पायी गयी, जिसे देश को कई लाख करोड़ का नुकसान हो गया। विपक्ष यदि उनसे स्तीफा मांगता है, तो इसमें गलत क्या है?  क्या यह विपक्ष का संवैधानिक अधिकार नहीं है?  विशेषरुप से देश का गृहमंत्रालय तो सबसे संवेदनशील मंत्रालय होता है, उसको सम्भालने वाला व्यक्ति किसी भी गम्भीर घटना से अपना पल्ला  यह कह कर कैसे झाड़ सकता है कि यह मेरा काम नहीं है?  ऐसा कथन एक  जिम्मेदार मंत्री की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। इसी तरह आप विधि मंत्री है, इसका मतलब यह नहीं है कि न्यायालय द्वारा किसी संस्था को सौंपी गयी जांच कार्यवाही की गोपनीय रिपोर्ट को देखें। कोयलामंत्री यह कह कर कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं कि घोटोलों का दोष हमारे मंत्रालय का नहीं  है, इसका दोषी ऊर्जा मंत्रलाय है। हैलिकोप्टर घोटाले से रक्षा मंत्री यह कह कर कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं कि सब कुछ मेरी जानकारी में नहीं हुआ है ।
कुल मिला कर सरकार का एक बेहद भद्दा व कुरुप चेहरा सामने आ गया है। जो कुछ घटित हो रहा है, वह यह दर्शाता है कि जो लोग सरकार चला रहे हैं, उनकी मानसिकता इस देश की जनता को ठगने की है। संवैधानिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली की जानबूझ उपेक्षा करना, उनकी अभिमानी और कुटिल प्रवृति को दर्शाता है। यदि साम्प्रदायिक शक्तियों को सता से दूर रहने का नारा लगा कर अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास कर रहे हैं, तो यह देश की जनता को दिया जाने वाला एक अशिष्ट धोखा है। आखिर कब तक आप धर्म निरेपक्षता और साम्प्रदायिकता की रट लगा कर  देश को लूटते रहेंगे।
यदि जनता अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग नहीं रहेगी और ऐसे राजनीतिक दल और गठबंधन को पुन: सता सौंप देगी, तब उसका अभिमान निरंकुशता में तब्दील हो जायेगा। निरंकुश शासक कभी जनसेवक नहीं बन सकता। वह जन भावना के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। वह लोकतंत्र का उपयोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए करता है। जनता को वह अपनी प्रजा समझता है और उस पर शासन करना अपना अधिकार मानता है।
सरकार में बैठे नेताओं को यह विश्वास है कि दिल्ली में लाखों लोगों की भीड़ इकट्ठा करने से उनकी सेहत पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पडे़गा। भारत में चुनाव जीतने के लिए धन चाहिये, जिसकी उनके पास कोई कमी नहीं है। पूरे देश में उनका वोट बैंक है, जो उन्हें छोड़ कर कहीं जायेगा नहीं। उनके नियंत्रण में सरकारी जांच एजेंसियां है, जिसके माध्यम से वे अपने विरोधियों को दबा सकते हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय माध्यम से अपने पक्ष में वातावरण बना सकते हैं। अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट सकते हैं। यदि ऐसी स्थिति बन जाये कि सरकार बनाने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं मिल पाये, तब औद्याोगिक घरानों के सपोर्ट और धन से सांसदों को खरीद कर सरकार बना सकते हैं। अर्थात भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को इतना विकृत कर दिया है कि सता पर नियंत्रण ही मुख्य लक्ष्य रह गया है। सता में आ कर देश की सेवा के भाव को पूर्णतया भुला दिया गया है।
किसी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए ये अशुभ संकेत है। अत: भारतीय जनता को  यह संकल्प लेना चाहिये कि हम अब उन्हें कभी नहीं चुनेंगे जिनकी नीयत में खोट हो। जो देश की जनता के लिए नहीं अपने लिए जीते हों। हम भारतीय नागरिक धर्म, जाति और प्रादेशिक भाव को भुला कर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को जीवंत बनाने के लिए आपस में जुड़ जायेंगे। राजनीतिक दलों के उन नुस्खों को असफल कर देंगे, जिसकों आधार बना कर वे चुनाव जीत जाते हैं। हम पूरे देश में छोटी-छोटी नागरिक समीतियां बनायेंगे। इनको आपस में जोंडेंगे और इन्हें इतना सशक्त बनायेंगे कि कोई भी व्यक्ति इनके समर्थन के बिना पूरे देश में कहीं भी चुनाव नहीं जीत सके। हम अब संसद और विधानसभाओं में उन व्यक्तियों को भेजेंगे जिनके मन में जन सेवा का भाव हो। उन्हें नहीं जो धूर्तता, चाटुकारिता और छल-कपट करने में निष्णात हों। अब सता से कुछ मांगने के लिए याचक बन कर सड़को पर इकट्ठा नहीं होंगे, वरन उन्हें सता से सड़क पर ले आयेंगे, जो जनता के सेवक बनने के बजाय अपने आपको जनता का शासक समझेंगे।
सब कुछ संभव है, यदि अब भी जनता जागरुक हो कर व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध हो जाय। एक सड़ी हुई व्यवस्था को नकार दें  ।

Sunday 13 October 2013

राहुल जी ! क्या आप भारत की जनता को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं ?

देश की जनता ने आपकी पार्टी को शासन करने के लिए दस वर्ष दिये। नो वर्ष कुशासन में गवां दिये। इस अवधि में सरकार  ने लूट, महंगाई और आर्थिक बरबादी के तोहफे बांटे। अब दसवें वर्ष में आप जनता को आदर्शवाद की घुटकी पिला रहे हैं।  यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि आप शासक पार्टी से जुड़े हुए नहीं है। आखिर देश की जनता को आप समझाना क्या चाहते हैं ? दबे हुए समाज के लिए मिलु-जुल कर काम करने की नसीहत देने का औचित्य क्या है ?  आर्थिक दृष्टि से पिछड़े समाज के लिए आपकी पार्टी यदि आगे बढ़ती, तब उसे कौन रोक रहा था? किस ने जनता की भलाई के लिए सरकार का साथ देने के लिए मना किया था ? मात्र शब्द आडम्बर से जनता को लुभाने की कोशिश मत कीजिये।  भारत वर्ष की जनता इतनी मूर्ख और अज्ञानी भी नहीं है, जितना आप समझते हैं। जनता अब आप से सवाल पूछेगी और उसके जवाब देने होंगे। आपको अपनी बात रखने का मौका अब नही दिया जायेगा। आपको बहुत समय दे दिया और बहुत सह लिया और अब और अधिक सहने की हिम्मत इस देश की जनता के पास नहीं है।
जनता के एक गाल पर महंगाई का तमाचा मारो और दूसरे को सहलाओं। उसे पुचकारते हुए कहो-’ हम आपके हितैषी हैं। आपकी भलाई की योजनाऐं बना रहे हैं। ‘ अर्थात आप चाहते हैं कि किसी भी तरह जनता आपको शासन करने के लिए पांच वर्ष और दे दें, ताकि देश को बरबाद करने की रही सही कसर भी आप पूरी कर लें। ऐसा होने वाला नहीं है। अच्छी बातें करने से तालियां जरुर बज जाती  है, किन्तु जनता की समस्यओं को समझने की लिए ज़मीनी हक़ीकत से रुबरु होना पड़ता है। उसके लिए योजनाएं बनानी पड़ती है। योजनाओं पर ईमानदारी से काम करना पड़ता है।
यदि आप वास्तव में इस देश की  एक अरब जनता के दु:ख में दुबले हो रहे हैं, तो बताईये – आपकी पार्टी के शासन काल में देश के खजाने से करीब पांच लाख करोड़ रुपये का गबन हुआ है, वह धन कहां है ? किन-किन बैंक खातों में जमा हुआ है? इस सबंध में आपने अब तक एक शब्द भी नहीं बोला है। आप बड़ी-बड़ी बाते करते हैं, परन्तु बहुत ही गम्भीर बात पर चुप रहते हैं। आपकी यह चुप्पी देश को अखरती है। सरकारी खजाने में इस देश की गरीब जनता का धन होता है और उसे यदि लूटा जाता है, तो अप्रत्यक्ष रुप से जनता की जेब पर ही डाका डाला जाता है। क्योंकि इस लूट से राजकोषीय घाटा बढ़ता है। मुद्रास्फिति बढ़ने से महंगाई बढ़ती है। महंगाई बढ़ने अभाव बढ़ते हैं। अभावग्रस्त जनता के कष्ट बढ़ते हैं। अब बताईये -इस देश की गरीब जनता के लिए आपके मन में  वास्तव में चिंता है या  यह एक महज दिखावा है ? एक छल है। गरीब जनता को जानबूझ कर मूर्ख बनाने की एक बचकानी कोशिश है। एक बात याद रखिये, भारत वर्ष की जनता गरीब जरुर है, परन्तु इतनी मूर्ख भी नहीं है, जितना आप समझते हैं।
काले धन के बारें में भी आपकी सरकार देश से बहुत कुछ छुपा रही है। विदेशी बैंकों में भारतीयों का कितना काला धन जमा है- इस पर विवाद हो सकता है। किन्तु यह सही है कि भारतीयों का काला धन देश से बाहर गया है , जो आ नहीं रहा है और सरकार इस बारें में कोई सार्थक पहल नहीं कर रही है। देश में काले धन का अथाह प्रभाव है। काला धन बाजार में उत्पात कर रहा है  और अर्थव्यवस्था की सेहत खराब कर रहा है। दस वर्षों से आपका परिवार सता का शक्तिशाली केन्द्र बना हुआ है। अत: देश जानना चाहता है कि काले धन के संबंध में सरकार की संदीग्ध भूमिका क्यों बनी हुई है?
देश की अर्थव्यवस्था की सेहत पर आप विद्वतापूर्वक भाषण दे रहे थे। परन्तु बिजली संकट पर कुछ नहीं कह पाये। बिजली उत्पादन की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं अटकी हुई है। इन परियोजनाओं में बैंकों का और उद्योगपतियों का अरबों रुपया फंसा हुआ है। शायद आपको मालूम नहीं हो, अत: आपके सलाहकारों से इसका जवाब पूछिये। वे दबी जबान में आपको बतायेंगे – कोल ब्लॉक आंवटन की जो भ्रष्ट नीति सरकार ने अपनायी, उसके कारण बिजली परियोजनाएं पूरी नहीं हो रही है। इसका प्र​तिकूल प्रभाव औद्योगिक उत्पादन पर पड़ रहा है।
जनता को मूर्ख बना कर वोट पाने के लिए आपकी सरकार खाद्य सुरक्षा बिल ला रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में तीस प्रतिशत जनता गरीबी रेखा के नीचे आती हैं, किन्तु आपकी सरकार 66 प्रतिशत आबादी को लागत मूल्य से केवल दस प्रतिशत मूल्य पर सस्ता अनाज बांटेगी। इस तरह 90 प्रतिशत घाटे की भरपायी राजकोष  से की जायेगी। अर्थात जनता का पैसा जनता में लुटाओं, वाह वाही पाओ। पुन: अपनी एक भ्रष्ट और निकम्मी सरकार बनाने के लिए वोटों का जुगाड़ करो। देश को भयावह आर्थिक संकट में धकेलना का यह एक कुत्सित प्रयास है। इससे आपकी पार्टी को वोट तो मिल जायेंगे, परन्तु देश बरबाद हो जायेगा।
प्रधानमंत्री पद नहीं स्वीकार करने का आप स्वांग रचते हैं। जबकि आप पिछले नो वर्षों से इस देश के सुपर प्रधानमंत्री है। आपने एक नौकरशाह को प्रधानमंत्री पद दे रखा है। वे आपकी मेहराबनी से कृतज्ञ है।  वे श्रीमान -  मन, कर्म और वचन से नौकरशाह ही है और नौकरशाह ही बने रहेंगे। उनके शरीर मे कभी एक प्रधानमंत्री आ कर नहीं बैठ सकता।
अपने मन से इस भ्रम को निकाल दें कि भारत की जनता आपको   देश सेवा के लिए प्रतिबद्धता मानेगा और अंतत: आपको अपना नेता स्वीकार कर लेगा। क्षमा करें, हम भारतीय इतने मूर्ख और अज्ञानी भी नहीं है।

Wednesday 9 October 2013

भारतीय संसदीय इतिहास के सबसे विवादास्पद व कंलकित गृहमंत्री

श्री शिंदिया के दो विवादास्पद आदेशों ने उन्हें गृहमंत्री के पद पर बैठने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त व्यक्ति घोषित कर दिया हैं।  क्योंकि उन्होंने जानबूझ कर संविधान की मूल धारणा और उसकी पवित्रता पर चोट पहुंचायी है। भारतीय संविधान ने धर्म, जाति, नस्ल, व लिंग के आधर पर भेद-भाव को पूर्णतया वर्जित किया है और सभी भारतीय नागरिकों को समान अधिकार दिये हैं।
अत: गृहमंत्री द्वारा राज्यों को भेजे गये दो आदेशों ने उन्हें संविधान की परम्पराओं को तोड़ने का दोषी पाया है। उनके दो आदेश हैं- एक: राज्य यह बतायें कि उनके राज्य में कितने साम्प्रदायिक दंगे हुए और उनमें कितने हिंदू और मुस्लिम नागरिक मारे गये। दो: राज्यों की जेलो में बंद मुस्लिम नागरिकों के प्रति पुलिस अमानवीय व्यवहार नही करें और उन्हें प्रताड़ित नहीं करें।
यह सर्वविदित है कि दंगे प्रशासनिक अक्षमता से होते हैं। दंगों में भारतीय नागरिक मारे जाते हैं- हिंदू और मुस्लिम नहीं। धर्म के आधार पर पीड़ितो की गणना करना- साम्प्रदायिक सदभाव को बिगाड़ने की प्रक्रिया है। इस गणना से सामाजिक सदभाव बिगड़ेगा और नागरिक एक दूसरें के प्रति नफरत और वैर का भाव रखेंगे। क्या केन्द्रीय सरकार के महत्वपूर्ण पद बैठे व्यक्ति को ऐसा आदेश देने का अधिकार है ? क्या उन्हें मालूम नहीं है कि दंगो में गरीब और निर्दोष व्यक्ति धोखे से मारे जाते हैं। जो पर्दे के पीछे रह कर दंगे करवाते हैं और इसमे आग लगाते हैं, उनका कुछ नहीं होता। हाल ही उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर  हुए दंगों में प्रदेश सरकार के एक शक्तिशाली मंत्री की  संदिग्ध भूमिका साबित हुर्इ है। क्या उन्हें दोषी मान कर पद से हटाया गया ? इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि दंगे सियासत करवाती है। मजहब नहीं।  राजनेताओं का मकसद होता हैं-  नागरिकों के मन में विभ्रम की स्थिति पैदा कर चुनावी लाभ उठाना।
राहुल  गांधी उत्तर प्रदेश की रैलियों  में भाषण दे रहें हैं -’ राजनीतिक दल वोटो के लिए हिन्दू और मुसलमानों को  आपस में लड़ा रहे हैं।’ जबकि शिंदे का उक्त आदेश  उनकी स्वयं की पार्टी पर अक्षरश: लागू हो रहा है और गृहमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति इसे प्रमाणित कर रहा है। हक़ीकत यह है कि भारत का शहरी मध्यमवर्ग यूपीए की नीतियों से क्षुब्ध है और इसके पक्ष में वोट नहीं देने का मानस बना रखा है। सम्भवत: इसीलिए कांग्रेस मुसलमानों पर डोरे डालने के हर सम्भव प्रयास कर रही है, ताकि मुस्लिम वोटों के आधार पर चुनाव जीता जा सके। इसी क्रम में एक कांग्रेसी मंत्री निर्भिक हो कर वक्तव्य दे बैठे-’ मुसलमानों के पचास लाख तक ऋण माफ कर देने चाहिये। इससे यही लगता है कि वोटों के लिए ये पगला गये हैं।
जिनके स्वंय के शरीर पर वस्त्र नहीं है। वे पूरी तरह निर्वस्त्र है और दूसरों को नंगा बताते हुए उन पर हंस रहे हैं। राजनेता झूठ और तिकड़मी चालों में इतने उलझे हुए हैं कि उनमें शर्म और हया तो बची ही नहीं है। वोटों के जुगाड़ के लिए कुछ भी कहने और कुछ भी करने में नहीं हिचक रहे हैं। उन्हें सत्ता चाहिये और सत्ता के लिए वे बहुत नीचे तक गिर सकते हैं।
गृहमंत्री का यह आदेश कि जेलों में बंदी मुस्लिम नागरिकों को पुलिस प्रताड़ित नहीं करें। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि पुलिस अपराधियों को धर्म के आधार पर पकड़ती है- अपराध के आधार पर नहीं। क्या यह पुलिस की कार्यप्रणाली पर आघात नहीं है ? क्या राज्यों की पुलिस वास्तव में धर्म के आधार पर नागरिको के बीच भेद-भाव करते हुए उन्हें प्रताड़ित कर रही है ? गृहमंत्री यदि निष्पक्ष होते तो ऐसे राज्यों और जेल/ पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध जांच करवा सकते थे। उन्हें नियमानुसार दंड़ित करवा सकते थे, परन्तु ऐसा नहीं किया और उन्होंने एक विवादास्पद आदेश दे ड़ाला। मंशा स्पष्ट है- धर्म विशेष के नागरिकों को लुभाने के हर सम्भव प्रयास किये जाय।
यह सही है कि भारतीय जेलों में कर्इ निर्दोष नागरिक बंदी है। वे जेलों से बाहर इसलिए नहीं आ पा रहे हैं, क्योंकि कानूनी प्रक्रिया पूरी करने के लिए उनके पास पैसे नहीं है। उनकी जमानत देने वाला कोर्इ नहीं है। वे इतने निर्धन है कि वर्षों से जेलो में सड़ रहे हैं और बाहर नहीं आ पा रहे हैं। इनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनो हैं। अच्छा होता गृहमंत्री कानूनी प्रक्रिया में सुधार की पहल करते, ताकि अनावश्यक रुप से निर्धन नागरिकों को प्रताड़ित होने से बचाया जा सके।
गृहमंत्री के आदेश का स्पष्ट भाव है कि अपराधियों को पकड़ने और उन्हें जेल में यातना देने के लिए भेदभाव करें। अर्थात हिंदू नागरिकों के साथ कठोर व्यवहार किया जा सकता है,  किन्तु मुसलमानों के प्रति नरम रुख अपनाया जाय। इसका यही आशय है कि आपको अपराध करने की छूट हैं। आप हमे वोट देते रहों। हमारी सरकार बनाते रहों और हम आपको बचाते रहेंगे। यह एक खतरनाक नीति है, जिसके भविष्य में कर्इ दुष्परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
बेहतर है मुस्लिम भार्इ एक भ्रष्ट सरकार की कुत्सित चालों में नहीं उलझे। इस सरकार की प्रमुख उपलब्धि – महंगार्इ और भ्रष्टाचार से सभी प्रभावित हो रहे हैं। ये दोनों समस्याएं धर्म के आधार पर भेद भाव नही करती और सभी को समान रुप से प्रभावित करती है। अत: हमे एक हो कर ऐसी सरकार से छुटकारा पाना है, जो अपने पापों को छुपाने के लिए मुसलमानों को ढाल बनाना चाहती है।
छिंयासठ वर्षों में से सतावन वर्षों तक कांग्रेस पार्टी ने भारत पर शासन किया है। मुसलमानों की माली हालत के लिए यही पार्टी जिम्मेदार है। यह सही है कि मुस्लिम समुदाय निर्धन और पिछड़ा हुआ है। मुस्लिम युवकों ज्यादा पढ़ नहीं पाते और घर की हालत देखते हुए उन्हें बचपन से ही छोटे-मोटे काम में लगना पड़ता है। गरीबी उन्हें अपराधी बनाने में भी सहायक होती हैं और अनजाने में गलत राह पकड़ लेते हैं। भारतीय जेलों में ऐसे कर्इ अपराधी बंदी है, जो छोटे-मोटे अपराध करते हुए पकड़े गये थे और निर्धनता के कारण छूट नहीं पा रहे हैं। परन्तु इस समस्या से लाभ उठाने के बजाय ऐसी कार्यवाही की जाती, जिससे सभी बंदियों को लाभ मिलता। सरकार का यह आदेश तो अपरोक्ष रुप से  आतंकवादियों के साथ भी नरम रुख अपनाने की बात कहता है। यदि सरकार की मंशा यही  है तो यह एक राष्ट्र के साथ दगाबाजी है। यदि एक राष्ट्र का गृहमंत्री ऐसा करता है तो ऐसा व्यक्ति पद की गरिमा को ठेस पहुंचा रहा है। उसे उस पद पर बैठने का कोर्इ नैतिक अधिकार नहीं है।
भारतीय मुसलमानों को सियासत ने बहुत ठगा है। अब उन्हें इनके गड़बड़झाल में नहीं उलझ कर उस राजनीतिक दल  को सशर्त समर्थन देना चाहिये, जो उनकी आर्थिक हालत सुधारने के लिए और उनके बच्चों की पढ़ार्इ के लिए सार्थक नीतियों की धोषणा कर सकें, ताकि मुस्लिम बच्चे अच्छी तालिम ले कर बेहतर नौकरियां पा सके और अपने परिवार और समाज को निर्धनता और अभावों के अंधकार से मुक्ति दिला सकें।

मोदी और भाजपा नहीं, तो फिर कौन……….. ?

मोदी और भाजपा को यदि जनता व्यापक समर्थन नहीं देंगी, तो फिर किसे देगी ? फिर उसी मां-पुत्र की जोड़ी और उससे जुड़ी दरबारियों की चौकड़ी को या तीसरे मोर्चे की खिचड़ी को  ? दरअसल दस वर्ष के कुशासन का दर्द जनता भोग रही है, फिर उसी विकल्प को चुनना उसके लिए दुखदायी होगा। यह शब्दाडम्बर नहीं, हकीकत है- यदि ऐसा होता है तो देश विनाश के गर्त में गिर जायेगा। लोकतांत्रिक परम्पराओं पर गहरा आघात लगेगा। देश बर्बादी और कंगाली के कगार पर पहुंच जायेगा। संवैधानिक संस्थाओं के आगे से ‘संवैधानिक’ शब्द हटा कर ‘अनुचर’ शब्द  जोड़ना पडे़गा। अर्थात संवैधानिक संस्थाएं अनुचार संस्थाएं बन जायेगी।
यदि पार्टी के युवराज को सम्राट बना कर राज तिलक कर दिया गया, तो यह भारत के इतिहास की एक अशुभ घड़ी होगी। लोकतंत्र का सूरज अस्ताचल को चला जायेगा और राजतंत्र का सूर्योदय होगा। जनता सम्राट के दर्शन के लिए तरस जायेगी। सम्राट न तो संकट की घड़ी में कोर्इ निर्णय लेंगे और न ही देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए माथा-पच्ची करेंगा। वे पद पा कर संतुष्ट हो जायेंगे। आधा समय वे विदेशों की सेर सपाटों में गुजारेंगे। राजमाता अपने दरबारिंयो की सलाह से राजकार्य सम्भालेंगी।
एक अन्य विकल्प है- मुलायम सिंह यादव और उनके तीसरे मोर्चे की खिचड़ी। इस खिचड़ी के पकने की सम्भावना बहुत कम हैं, क्योंकि न तो हंड़िया का जुगाड़ कर पायेंगे ओर न ही चांवल का । अत: खिचड़ी ख्यालों में ही पकेगी और यदा-कदा वे इसका ज़िक्र करते रहेंगे। परन्तु प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा मुलायम सिंह जी के मन में हमेशा दबी रहेगी। यदि कांग्रेस  इतनी कमज़ोर हो जायेगी कि वह सरकार बनाने में पूर्णतया असमर्थ रहेगी, तब सांम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर करने के लिए मुलायम सिंह जी को चौधरी चरण सिंह या चन्द्रशेखर बना देगी। यदि ऐसी सरकार किसी भी तरह बन भी गयी, तो यह देश के लिए दुर्भाग्यजनक स्थिति होगी। क्योंकि सरकार बनेगी भी गिरने के लिए। उम्र बहुत छोटी होगी। आज चल गयी तो कल गिरने की सम्भावना  रहेगी।  अस्थिर सरकारें हमेशा घातक होती हैं, क्योंकि वे अपनी कोर्इ नीतियां नहीं बना पाती। उन्हें लागू नहीं कर पाती । हमेशा सहमी-सहमी रहती है। भारत की जनता ऐसी परिस्थितियां पैदा नहीं करेंगी, ऐसी आशा है।
अत: अब एक ही अंतिम विकल्प हमारे पास बचा है- इस बार मोदी और उनकी  भाजपा  को मौका देने का ।  भारत के राजनैतिक विश्लेषक, विचारक और मीडिया इस उत्तर को स्वीकार नहीं करेंगे। जनता की मन: स्थिति समझे बिना, वह अपने विचारों को ही अभिव्यक्त करेंगे। अधिकांश का मत एकपक्षीय होगा और वे किसी एक रणनीति के तरह मंथन करते हुए दिखार्इ देंगे। परन्तु वास्तविकता यह है कि भारत को इस समय एक स्थिर, मजबूत और संवेदनशील सरकार चाहिये, जो पूरे मनोयोग से देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपना दायित्व निभायें।
परन्तु विडम्बना यह है कि भाजपा सभी जगह नहीं है और जहां है, वहां कांग्रेस से उसका कड़ा मुकाबला है। भाजपा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है। जहां पर भाजपा का कांगेस से सीधा मुकाबला है, वहां उसका पूरी तरह सफाया कर दिया जाय, तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी, जो उसे सत्ता के नज़दीक ले जायेगी। सत्ता पाने की उसकी राह आसान हो जायेगी। आशा है भाजपा अपनी रैलियों के अभियान के समाप्त होने के बाद इसी रणनीति पर काम करेगी, तो यह ज्यादा श्रेयस्कर होगा।
कांग्रेस बिहार और उत्तरप्रदेश में हाथ पैर मार रही है, किन्तु उसके सपने साकार नहीं होंगे। मुजफ्फनगर जा कर पीड़ितो के आंसू पौंछने और मायावती को दलितों का नेता नहीं मानने से ऐसा कुछ नहीं होगा कि उसकी बार्इस सीटों में और वृद्धि हो जायेगी। वह अपनी आधि सीटें भी बचा लेंगी तो वह  गनीमत होगा। नीतीश कुमार की मित्रता से कोर्इ लाभ होने वाला नहीं है। ममता और पटनायक अपने किले में उसे सेंध लगाने नहीं देंगे। आंध्र का किला वैसे भी ढह रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद एक मौसमी पार्टी का अंत हो जायेगा। इसके बाद दिल्ली जीतना कांग्रेस के लिये आसान नहीं होगा। कर्नाटक और केरल से थोड़ी बहुत आशाएं बची है, परन्तु  राजस्थान, मघ्यप्रदेश और गुजरात में पहले जैसी स्थिति नहीं बनेगी।
अत: देखा जाय तो कांग्रेस के लिए परिस्थितियां सभी जगह प्रतिकूल बन रही है और भाजपा के लिए अनुकूल, किन्तु भाजपा  मोदी की रैलियों में उमड़ रही भीड़ को देख कर मस्त हो रही है और उसके नेताओं को जनता के पास जाने का अभी तक समय नहीं मिल रहा है। कुशासन से असंतुष्ट भारतीय जनता मोदी की को हीरो बना रही है, किन्तु लाखों शहरी जनता के आधार पर चुनाव नहीं जीते जाते। चुनाव जीतने के लिए करोड़ो मतदाताओं को अपने से जोड़ना पड़ता है। सघन रचनात्मक अभियान से ही यह सम्भव हो सकता है।
राष्ट्र को संकट से बाहर निकालने के भाजपा नेता सक्षम हैं, किन्तु अपनी क्षमता का उपयोग करने के लिए पता नहीं क्यों उन्हें परहेज हैं। राजस्थान और दिल्ली को पुन: जीतना और मघ्यप्रदेश और छतीसगढ़ में से किसी एक प्रदेश को हथियाना कांग्रेस की रणनीति का एक भाग है और इस पर कांग्रेसी परिश्रम भी कर रहे हैं। किन्तु भाजपा नेताओं की यह सोच है कि हम अपने दोनों प्रदेशों में वापस जीत लेंगे और कांग्रेस के प्रदेश उससे छीन लेंगे।  किन्तु यह अति आत्मविश्वास की पराकाष्ठा है। राजनीति में अति आत्मविश्वास घातक होता है। भाजपा पहले भी चोट खा चुकी है, किन्तु नहीं सम्भलने की उसने कसम भी खा रखी है।
एक बड़ी नाव में मौदी बिठा कर उसके हाथ में चप्पु थमाने से नाव किनारे पर नहीं पहुंचेगी। सभी का सहयोग ही उसे किनारे तक पहुंचायेगा। किन्तु अपने नेता की जय-जयकार करने के बजाय अपने हाथों में पकड़े हुए चप्पुओ को भी चलाना आवश्यक होता है। मोदी के अनुयायी तो जनता और कार्यकर्ता बन जायेंगे, किन्तु भाजपा नेताओं का उनका सहयोगी बन कर कठोर परिश्रम करने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर निकलना पड़ेगा। दो बार धोखा चुके हैं, अब यदि तीसरी बार धोखा खा गये, तो यह धोखा न केवल पार्टी के लिए वरन इस देश की जनता के लिए भी बहुत बड़ा आघात होगा। अत: भाजपा नेताओं को अपने लिए नहीं, अपनी पार्टी के लिए नहीं, देश के लिए चिंतित होना आवश्यक है। हवा में कुलांचे भरने से मंजिल नही मिलती। मंजिल पाने के लिए एक -एक कदम सोच समझ कर रखा जाता है, जिससे लक्ष्य आसान बन जाता है।
यह सब कुछ इसलिए लिखा गया है, क्योंकि राजस्थान में जहां विधानसभा के चुनाव होने वालें हैं, कांग्रेस ने अपनी ताकत झोंक दी है, किन्तु भाजपा नेता अभी किनारे खड़े लहरे ही गिन रहे हैं। यदि ऐसी ही स्थिति लोकसभा चुनावों के दौरान बन गयी, तो यह स्थिति दुर्भाग्यजनक होगी। इस समय मोदी और भाजपा को सत्ता पाने की ललक हो सकती है, परन्तु भारत की जनता को एक शासन को उखाड़ने के लिए भाजपा और मोदी की जरुरत है। अत: उन्हें देश की नब्ज को पहचानते हुए जनता से अपने आपको जोड़ने और उसे अपनी बात समझाने के लिए गम्भीर प्रयास प्रारम्भ कर देने चाहिये।       लक्ष्य पाने की आशा संजोय रहने के बजाय लक्ष्य तक पहुंचने के गम्भीर प्रयास ही लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायक बनते हैं।

Thursday 3 October 2013

गरीबों को बहुत रुलाया और अब उन्हें सपने बेच रहे हैं, दर्द दे कर दवा बांटने का ढोंग कर रहे हैं

जुबान वही बोलती है, जो मस्तिष्क सोचता है। मस्तिष्क में सोचने की क्षमता ही नही है तो वह विचार कहां से लायेगा और उन्हें शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त कैसे करेगा ? सम्भवत: पार्टी राजकुमार को समझाया  कुछ और था, वे बोल कुछ और गये।  अब समझ है ही नहीं कि क्या बोले और कैसे बोले, अत: बोल गये- हम गरीबों के लिए सपने लायें हैं। हम उन्हें सपने दिखाने का हक दिला रहे हैं, पर विपक्ष सपने देखने का हक छीन रहा है। सपने कभी छीने नहीं जाते, न ही उन्हें बुलाया जाता है।  वे तो बरबसर आ जाते हैं।  किस को मालूम पड़ता है कि अमूक व्यक्ति सपने देख रहा है, इसलिए उसे जगा दो और कह दो कि तुम गरीब हो, इसलिए तुम्हें सपने देखने का अधिकार नहीं है। परन्तु शायद उन्हें नहीं मालूम कि गरीबों को डरावने सपने आते हैं। क्योंकि दिन भर जो घुटन होती है, वह सपनो में ज्यादा भयभीत करती है।
दस वर्ष तक गरीबों को रुलाते रहे। अब उन्हें कह रहे हैं- आपको रोने की जरुरत नहीं है। आप हमसे सपने खरीद लों और मुस्कराओ। अब तक आपको भूखा रखते रहे, अब आपको पेट भर खाना खिलायेंगे। अब तक आपको मुफ्त दवार्इयां नहीं मिलती थी, अब दिला रहे हैं। परन्तु विपक्ष ऐसा चाहता ही नहीं कि हम आपकी सेवा करें। अब उन्हें कैसे समझाएं कि जब कर्ता-धर्ता ही आप हैं, तो आपको रोकने की हिम्मत भला कौन कर सकता है ? विपक्ष तो जुम्मा-जुम्म आठ नो साल शासन कर पाया। बाकी बचे  छप्पन -सतावन साल तो आपके खाते में ही गये हैं।
दस वर्ष से आप ही इस देश पर हुकूमत कर रहे  हैं। आपके अलावा आपके पुरखे इस देश पर शासन करते रहे थे। गरीबी हटाओं का नारा भी आपके पुरखो ने ही देश को दिया था। गरीबी तो हटी नहीं, गरीब जरुर हट गये। गरीबों के नाम की माला जपने से गरीब खुश हो कर वोट देते हैं। सम्भवत: इसीलिए आपने गरीबी ! गरीबी !! की रट लगा रखी है। क्योंकि आपको मालूम है इस देश की गरीबी और गरीब ही आपको चुनावों की वैतरणी पार कराने में सहायक होंगे।
कभी आपने कहा था-’ गरीबी’ तो एक मानसिक अवस्था है। गरीबी होती नहीं, वह महसूस होती है। दरअसल आपको मालूम ही नहीं है कि गरीबी आखिर होती क्या है? क्योंकि न आपने गरीबी देखी है और न ही उसे महसूस किया है। आप कभी बाज़ार गये ही नहीं, तो दाल आटे का भाव आपको कैसे मालूम होगा ? आपको सिर्फ यह मालूम है कि गरीब को दो रुपये में गेहूं दिलाने से वह भुखा नहीं मरेगा। परन्तु आपको यह नहीं मालूम कि गेहूं को सुखा चबाने से भूख नहीं मिटती है। गेहूं को पीसाना पड़ता है और दो रुपये किलों में खरीदे गये गेहूं को पिसाने के लिए तीन रुपये खर्च करने पड़ते हैं। रोटी पकाने के लिए र्इंधन भी महंगा हो गया है। सब्जी पचास रुपये किलो मिलती है और दाले अस्सीं रुपये किलो। खाद्य तेल सौ रुपये लीटर। सब्जी पकाने के लिए मसालों की भी जरुरत होती है, उसमें नमक दस रुपये किलो है, बाकी पचास रुपये किलो से कोर्इ कम नहीं मिलता।
अत: मात्र गेहूं दिलाने से भुखों की भूख नहीं मिटती, क्योंकि रोटी आप उपलब्ध करा रहे हैं, परन्तु दाल सब्जी की व्यवस्था कौन करेगा ? क्योंकि आप सस्ता गेहूं दिलायेंगे, तो महंगार्इ बढ़ेगी। गेहूं के अलावा अन्य खाद्य पदार्थ महंगे हो जायेंगे। बात वहीं की वहीं रही। सूखी रोटी खाने से भूख मिटेगी नहीं। अलबता कुपोषण बढ़ जायेगा। कमजोर शरीर जल्दी बिमार हो जायेगा। परन्तु आपने मुफ्त दवा की व्यवस्था कर रखी हैं। गरीब को दवा मिल जायेगी, वह खा लेगा और जिंदा रह जायेगा।
दस वर्ष के शासन के परिणाम जनता के सामने हैं। औद्योगिक उत्पादन घटने से बैरोजगारी बढ़ी। नये रोजगार का सृजन नहीं हुआ, किन्तु जो है, उन पर  छीनने की तलवार लटकी हुर्इ है। रही सही कसर मनरेगा जैसी अस्थायी रोजगार गारंटी ने पूरी कर दी है। क्योंकि अस्थायी रोजगार गारंटी ने स्थायी रोजगार छीन लिए और नये रोजगार का सृजन बंद हो गया। यदि सरकार की नीतियां विनाशकारी नहीं होती तो दस वर्षों में कम से कम एक करोड़ बैरोजगार युवकों को स्थायी रोजगार दिलाया जा सकता था।
हालात इस समय यह बन रहे है कि पिता की नौकर फैक्ट्री में तालाबंदी होने से चली गयी और बैरोजगार पुत्र के पास नौकरी नहीं है। घर में खाने वाले पांच हैं और कमाने वाला कोर्इ नहीं। ऐसे असंख्य परिवार तकलीफें भोग रहे हैं।  सरकार के पास युवकों को देने के लिए काम है ही नहीं और प्राइवेट सेक्टर नौकरियां देने में सक्षम नहीं है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में परिवार ज्यों-त्यों रोते हुए गुजर बसर कर रहा है। ऐसे पीड़ित परिवार को सपने नहीं, रोजगार चाहिये। आमदनी का जरिया चाहिये। थोथी बातों से उनका पेट भरने वाला नहीं है।
बैरोजगार युवकों को झूठे सपने दिखा कर उन्हें भ्रमित क्यों किया जा रहा है? देश के इस समय जो आर्थिक हालात है, उसमें नये रोजगार पैदा करने की सम्भावना बहुत कम है। किन्तु हालात से बेखबर महाशय विपक्ष को कोसने के लिए बैरोजगार युवकों रोजगार मुहैया करने के सपने दिखा रहे हैं। अर्थात हम से गलत काम हो गये, उसके जिम्मेदार हम नहीं हैं, क्योंकि विपक्ष हमारे मार्ग में अवरोध खड़ा करता है। अब हम कुछ करना चाहते हैं, किन्तु विपक्ष हमे रोकता है। अर्थात भारत के मतदाताओं से हमारा निवेदन है कि विपक्ष को मिटा दो और हमे भरपूर ताकत दों, ताकि हम भारतीय जनता को मूर्ख समझते हुए लूटने का काम जारी रख सकें।
गरीबी, भूख, बैरोजगारी वस्तुत: अक्षम प्रशासन, अयोग्य, अनुभवहीन व असंवेदनशी नेतृत्व की उपज होती है। परन्तु  इन शब्दों का मात्र उपयोग यदि चुनावी लाभ के लिए किया जाता है, तो निश्चय ही ऐसे राजनेता इस देश की जनता को मूर्ख समझते हैं। क्योंकि जो दर्द देते हैं, वे ही दवा लाने का स्वांग करते हैं और इसके लिए ढिंढ़ोरा पीटते हैं, तो स्पष्ट हैं उनके मन में दगा है। दवा के बहाने अपना मतलब साधना चाहते हैं।
अत: भारतीय जनता को अब ठगो से सावधान रहना चाहिये। ये आपके अपने नहीं है। चुनावों का मौसम आने पर ये महलों से बाहर निकलते हैं। गरीबी, भूख, बैरोजगारी आदि शब्दों का अपने भाषणों में प्रयोग करते हुए जनता को लुभाने की कोशिश करते हैं। चुनाव का मौसम जाते ही ये पुन: अपनी शान शौकत वाली रंगीन दुनियां में खा ेजाते हैं। तब उन्हें गरीब, गरीबी, भूख, बैरोजगारी जैसे शब्द याद नहीं रहते। ये शब्द उन्हें विचलित नहीं करते। भाषणों के दौरान इन शब्दों का प्रयोग करते हुए जो गुस्सा दिखाते हैं, वह काफूर हो जाता है।  जनता को दिखाये गये हसीन सपने याद नहीं रहते। दरअसल वे अपनी रंगीन दुनियां में वापिस आते ही राजसुख भोगने में इतने मस्त हो जाते हैं कि उनकी सारी स्मृतियां विलुप्त हो जाती है।

राहुलगांधी का यदि हृदय परिवर्तन हो गया है, तो उन्हें जनता के सात सवालों के जवाब देना होगा

दाग़ियों के साथ दग़ाबाजी करते हुए राहुल गांधी ने कांग्रेस के भरोसेबंद साथी लालू यादव के राजनीतिक जीवन को मंझधार में हिचकोले खाने छोड़ दिया है। उनके राजनीतिक स्टंट से नये हमजोली- नीतीश गदगद हो गये। राह का कांटा दूर होने की खुशी में उन्होंने तुरन्त राहुल की प्रंशसा में कसीदे कढ दियें। दरअसल लालू की नींद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने हराम कर दी थी। परन्तु कांग्रेस पर उन्हें भरोसा था कि वह मुश्किल घड़ी में उनका साथ देगी। अध्यादेश के जरिये कांग्रेस ने उन्हें बचाने की कोशिश भी की थी, परन्तु महामहीम के रुख ने सारा खेल बिगाड़ दिया। अध्यादेश पर राष्ट्रपति की मुहर लगने की सम्भावना नहीं थी, इसीलिए राहुल जी को हीरो बन कर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने  के लिए एक बचकानी नैाटंकी करनी पड़ी।
तीन मिनट के राजनीतिक तूफान के बाद राहुल गायब हो गये और जवाब देने की सारी जिम्मेदारी उन राजनेताओं पर डाल दी, जो अध्यादेश के संबंध में मीडिया के समक्ष लम्बी-चौड़ी दलीले दे रहे थे। अपने नेता के हृदय परिवर्तन से वे सकते में आ गये और मजबूरन उन्हें राहुल के सुर में सुर मिलाना पड़ा। अपना स्वाभिमान और गरुर गवां चुके राजनेता  अध्यादेश के पक्ष में बोलते-बोलते अचानक विरोध में बोलने लगे। गिरगिट की तरह राजनीतिक रंग बदल कर कुछ ही क्षणों में दो तरह की जुबान बोलना भारत की राजनीति का एक बेमिशाल उदाहरण बन गया है। यह जी हजूरी और चापलुसी की पराकाष्ठा है। राजनीतिक मूल्यों का क्षरण और एक परिवार के प्रति स्वामीभक्ति का प्रदर्शन, वस्तुत: लोकतंत्र में राजतंत्र की एक झलक दिखा रहा है। यदि कांग्रेस पार्टी के लोकसभा में दो तिहार्इ से अधिक सांसद हो जाय, तो निश्चय ही यह राजनीतिक दल संविधान में सेशोधन करने के लिए भारतीय लोकतंत्र को राजतंत्र में तब्दील करने का अध्यादेश ला सकता है।
राहुल गांधी के राजनीतिक स्टंट से जब चारों ओर से प्रतिक्रिया आने लगी, तब वे राजप्रासाद में कहीं अदृश्य हो गये और प्रतिक्रिया का जवाब देने की जिम्मेदारी दरबारियों पर डाल दी। जैसी की सम्भावना थी, एक साथ कर्इ दरबारी मैदान में आ गये और अपने स्वामी के प्रति स्वामीभक्ति का प्रदर्शन करने की प्रतिस्पर्धा में लग गये। कुछ भी कह कर, कहीं छुप जाना और जवाब देने की जिम्मेदारी दरबारियों पर ड़ाल देना, लोकतंत्र में राजशाही परम्परा का सुन्दर उदाहरण हैं।
यदि वास्तव में राहुल गांधी को आत्मदर्शन हो गया है और उनके मन में राजनीति का शुद्धिकरण करने की उत्कंठा जगी है, तो उन्हें जनता के समक्ष इसे सिद्ध करना होगा। यदि निम्न सवालों के संबंध में वे स्पष्टीकरण देंगे और इनका पालन करने के लिए प्रतिबद्ध दिखायी देंगे, तो यह समझा जायेगा कि वे अन्तर्मन से राजनीति का शुद्धिकरण चाहते हैं, वरना यह समझा जायेगा कि उनके द्वारा किया गया उपक्रम एक राजनीतिक नौंटकी ही थी, जिसका स्तर बहुत घटिया था।
एक: उन्हें दरबारियों से अपने आपको मुक्त करना होगा। वे जनता के समक्ष जो भी विचार रखेंगे, उसकी जो भी राजनीतिक प्रतिक्रिया होगी, उसका जवाब वे स्वयं ही देंगे, दरबारी नहीं।
दो: अगले विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में वे किसी भी दाग़ी उम्मीदवार को पार्टी का टिकट नहीं देंगे।
तीन: लोकतंत्र में बोलने और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता होती है। सतारुढ़ दल को अपनी आालोचना सहना पड़ता है। किन्तु आपकी सहनशक्ति जवाब दे देती है। अपने आलोचकों को दबाने के लिए सीबीआर्इ और अन्य सरकारी संस्थाओं की सहायता ली जाती है। यह गलत परम्परा है। क्या आप इसे भविष्य में बंद करना चाहेंगे ?
चार : गरीब और गरीबों के प्रति आपके मन में बहुत अनुराग उमड़ा हैं। इन दिनों गरीबों के कल्याण की बहुत ही महत्वपूर्ण घोषणाएं कर रहे हैं। आपकी योजनाओं से गरीब लाभान्वित होंगे, परन्तु उनकी गरीबी दूर नहीं होगी। वे स्थायी रुप  से गरीब ही रहेंगे और सरकारी खैरात पाने के लिए सदैव अवलम्बित हो जायेंगे। क्योंकि  गरीबों के लिए अस्थायी रोजगार की व्यवस्था तो कर रहे हैं, किन्तु बेरोजगार युवकों को स्थायी रोजगार उपलब्ध कराने की आपके पास कोर्इ योजना नहीं है।
अब किसी भारतीय गरीब को भूख से नहीं मरने देंगे। आपके विचारों से अब वे भर पेट भोजन करेंगे। उनको बात करने के लिए आप सेलफोन भी बांटने वाले हैं, परन्तु उनके पास रहने को मकान नहीं है। बच्चें स्कूल नहीं जा सकते, क्योंकि उन्हें पढ़ाने के लिए पैसे नहीं है। वे अपना इलाज नहीं करा सकते, क्योंकि अधिकांश गांवों में प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र नहीं है। शहरों में महंगा इलाज कराने की उनकी औकात नहीं है। आपने गरीबों को भूख से नहीं मरने देने की गारन्टी तो ले ली, किन्तु जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं- आवास, शिक्षा, स्वास्थय की व्यवस्था कब करेंगे ? यह सब तब होगा जब भारत पिछड़ा और गरीब राष्ट्र नहीं रह कर विकसित व उन्नत राष्ट्र होगा। उसका तीव्र औद्योगिकरण होगा, जिससे स्थायी रोजगार पैदा होंगे। परन्तु आप यदि इसी तरह खैरात योजनाओं में धन लुटाते रहेंगे, तो यह सब सपना ही बन कर रह जायेगा।
पांच: सरकार की लोकलुभावन योजनाओं में धन लुटाने से राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। महंगार्इ नियंत्रण में नहीं आ रही है।  भविष्य में महंगार्इ अपना और अधिक रौद्र रुप दिखायेगी।  महंगार्इ का प्रभाव प्रत्येक भारतीय नागरिक पर पड़ रहा है। महंगार्इ कम करने के यदि आप के पास कोर्इ उपाय नहीं है, तो क्या सरकारी धन का अपव्यय करना छोड़ सकते हैं ?  निश्चय ही ऐसा आप नहीं करेंगे, क्योंकि आपके लिए देश की आर्थिक बर्बादी की कीमत पर गरीब जनता के वोट ले कर चुनाव जीतना जरुरी है।
छ: भ्रष्टाचार के संबंध में आपने कभी कोर्इ विचार अभिव्यक्त नहीं किये। जबकि देश की अवनति का मूल कारण भ्रष्टाचार है। वर्तमान सरकार के शासनकाल में भ्रष्टाचार ने कर्इ कीर्तिमान स्थापित किये हैं। सारे घोटाले सरकार की नाक के नीचे हुए हैं। सरकार के वरिष्ठ मंत्री और यहां तक प्रधानमंत्री की भी संदीग्ध भूमिका उजागर हुर्इ है। क्या इन घोटालों की निष्पक्ष जांच की आप पहल करेंगे ? सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बाद भी सीबीआर्इ घोटालों की जांच मंथर गति से कर रही है और वह दोषियों को पकड़ने के बजाय उन्हें बचाने की कोशिश कर रही है। भ्रष्टाचार गरीबी और अभाव बढ़ाता है। परोक्ष रुप  से महंगार्इ भी इसका मूल कारण है। देश का प्रत्येक नागरिक इससे पीड़ित है, अत: इस संबंध आपका मौन देशवासियों को अखर रहा है। वैसे भी भारत के गरीबों के प्रति आपके मन में बहुत पीड़ा है। क्या भ्रष्टाचार के बारें मे आप अपने विचार प्रकट करेंगे ?
सात: भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों का काला धन विदेशी बैंकों में जमा है। इसके संबंध में जो आंकड़े दिये जा रहे है, वे अतिश्योक्तिपूर्ण हो सकते हैं, किन्तु आपकी सरकार ने इस धन को वापस लाने की जानबूझ कर कोर्इ सार्थक कोशिश नहीं की। क्या आप देश की गरीबी दूर करने के लिए छल से गरीब भारतीयों का लूटा हुआ धन वापस लाने के लिए पहल करेंगे ? यदि आप ऐसा करेंगे तो यह समझा जायेगा कि वास्तव में गरीबों के हितैषी हैं। यदि नहीं कर पाये तो यह समझा जायेगा कि आप गरीबों के लिए जो आंसू बहा रहे हैं, वह महज एक ढोंग है। जनता को मूर्ख बना कर उसको ठगने का एक उपक्रम है।
आपके पास इन सातों सवालों का कोर्इ जवाब नहीं है। आप देना भी नहीं चाहेंगे, क्योंकि न तो आपकी लोकतंत्र में आस्था है और न ही भारतीयों के प्रति आपके मन में आदर और सदभाव है। आप केवल भारतीय नागरिकों का उपयोग सत्ता प्राप्ति के लिए करना चाहते हैं। उनकी अहमियत आपके लिए एक मोहरे के अलावा कुछ भी नहीं है।

भ्रष्ट राजनीति के कीचड़ मे कर्इ घोटाले दबे पड़े हैं- लालू अकेले दाग़ी नहीं, कर्इ दाग़ी है

सत्रह वर्षो में लालू अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए सजा से बचने की तिकड़म भिड़ाते रहे थे। हाथों में कर्इ ग्रहों को प्रसन्न करने की अंगुठिया पहनने पर भी ग्रहों की शुभ दृष्टि उनके काम नहीं आयी और अंतत: आज उन्होंने जेल में नयी सुबह के दर्शन किये। परन्तु भारत की जनता का उस सुबह का इंतज़ार है, जब चारा घोटालें से भी कर्इ गुणा बड़े घोटालों के अपराधी जेल की सलाखों के पीछे होंगे।
ये बड़े अपराधी लालू से भी ज्यादा चालाक और धूर्त हैं। ये सर्वाधिक शक्तिशाली है। सत्ता के प्रभाव का उपयोग करते हुए घोटालों को दबाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। सत्ता के मद में डूबे हुए हैं और पुन: सत्ता पाने के लिए तड़फ रहे हैं।
अब इनके भाग्य का निर्णय भारत की जनता करने वाली है। जनता यदि इन्हें तिरस्कृत कर दें तो इनका अभिमान चूर-चूर हो जायेगा। इनके हाथ में पकड़ी हुर्इ सत्ता की डोर छिटक कर टूट जायेगी। ये जब सत्ता से दूर हो कर असहाय अवस्था में आ जायेंगे, तभी भारत की कोर्इ जांच एजेंसी स्वतं़त्र हो कर इनके विरुद्ध जांच कर पायेगी। भारत की जनता उस सुबह का बेसब्री से इंतज़ार कर रही है।

अपराधी की पहचान उसके द्वारा किये गये गुनाह से होती है, धर्म से नहीं गृहमंत्री जी !
अपराधी तभी पकड़ा जाता है, जब उसने कोर्इ गुनाह किया होता है। धर्म के आधार पर उसकी पहचान कर उसे पकड़ा नहीं जाता और न ही जेल में उसे प्रताड़ित किया जाता है। अत: वोटो का जुगाड़ करने के लिए देशवासियों में भ्रम मत फैलाओं, गृहमंत्री जी ! आपने कैदियों के आगे मुसलमान विशेषण लगा कर भारत की न्याय व्यवस्था पर प्रहार किया है। न्यायाल अपराध के आधार पर अपराधी को दंड़ित कर जेल भेजता है, उसके धर्म के आधार पर नहीं।
आपके कहने का यह आशय है कि यदि कोर्इ कैदी मुसलमान धर्म को मानता है, उसे प्रताड़ित नहीं किया जाय और जो अन्य धर्म को मानता है, उसे चाहे तो प्रताड़ित किया जाय। वोटों के लिए भारतीय नागरिकों में परस्पर भेद करने की यह निकृष्टतम कोशिश है।
गृहमंत्री की मनोदशा और नेरोबी के एक माल में हुए आतंकी हमलों के जिम्मेदार आतंकवादियों की मनोदशा  में विशेष अतंर नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने कहा था, ‘जो मुसलमान हैं, उन्हें छोड़ दिया जायेगा और जो अन्य धर्म को मानने वाला होगा, उसे मार दिया जायेगा।’

  भाजपा के लिए दक्षिण से आ रही है- खूशनुमा बयार
कंग्रेस ने आंध्र में जगनमोहन रेड्डी का समर्थन पाने के लिए उन्हें रिहा किया था। अर्थात सियासी चाल के आधार पर ही उन्हें जेल भेजा था। परन्तु पार्टी को उनका फैंसला भारी पड़ रहा है, क्योंकि जगनमोहन मोदी की प्रशंसा में कसीदे पढ़ रहे हैं। ऐसा कर के उन्होंने कांग्रेस को अजीब दुविधा में ड़ाल दिया है।
यदि कांग्रेस आंध्र में सिकुड़ गयी, तो केन्द्र में बहुत कृशकाय हो जायेगी। आंध्र में भाजपा की किंचित सफलता भी केन्द्र में उसकी शक्ति बढ़ा देगी। बहरहाल यदुरप्पा को अपने पक्ष में ले कर भाजपा दक्षिण के बंद द्वार में सेंध लगा सकती है।
जगनमोहन का बयान भाजपा को सुकून दे रहा है। मोदी के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। परन्तु फिलहाल सबकुछ भविष्य के गर्भ में हैं। क्योंकि सियासी समीकरणों का ऊंट किस करवट बैठता है, यह भविष्य ही बतायेगा। किन्तु कांग्रेस के लिए संकट का दौर प्रारम्भ हो गया है।