Monday 28 October 2013

यदि आपको वोट चाहियें, तो पहले जनता के पैसों का हिसाब दों

दोनो वक्त परभेट भोजन। सिर पर पक्की छत। बिमारी से इलाज की हैसियत। बच्चों को पढ़ाने और सामाजिक दायित्व को उठाने की हिम्मत। यह होती है एक सुखी भारतीय इंसान की पहचान। परन्तु करोड़ो भारतीय इस छोटे से सुख से वंचित है। लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तरसती है। वे अभावग्रस्त है। उन्हें नहीं लगता कि वे इस झंझाल से बाहर निकल पायेंगे और सुखी जीवन जीने के तमन्ना पूरी कर पायेंगे।
दरअसल सरकारी कर्ज चुकाते चुकाते आज करोड़ो भारतीय इस दयनीय हालत में पहुंचे हैं। सरकार गरीब भारतीय की जेब से सीधा पैसा नहीं निकालती, इसलिए उसके अदृश्य हाथ दिखायी नहीं देते।  सरकार उनकी कमार्इ का अधिकांश हिस्सा टेक्स के रुप में वसूल कर लेती है। बाज़ार में बिकने वाली हर वस्तु पर सरकार टेक्स लगाती है। उदाहरण के लिए 16-17 रुपये की लागत का पेट्रोल 75 रुपये लिटर में मिलता है। सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि सरकार पेट्रोल पर कितना टेक्स लगाती है।  अर्थात जितना ज्यादा टेक्स होगा, उतनी ही महंगार्इ होगी। जितनी महंगार्इ होगी, उतनी ही जल्दी उसकी जेब खाली होगी। जेब खाली होने पर एक चीज खरीदेगा तो दूसरी के लिए तरसेगा। यह सिलसिला बराबर चलता रहेगा।
नेताओं, नौकरशाहों की विदेश यात्राओं, सेर सपाटों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन का भार आम भारतीय नागरिक को ढोना पड़ता है।  सरकारी कार्यालयों में अपना काम कराने के लिए उसे रिश्वत और देनी पड़ती है। स्वास्थय, शिक्षा पर जो भी सरकारी खर्च करती है, उसका पैसा आम भारतीय देता हैं, किन्तु उसके बच्चों को सरकारी स्कूल के बजाय प्रार्इवेट स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजना पड़ता है, क्योंकि वहां की पढ़ार्इ का स्तर निरन्तर घटिया होता जा रहा है। इसी तरह सरकारी अस्पतालों के बजाय उसे अपना इलाज प्रार्इवेट अस्पतालों के डाक्टरों से कराना पड़ता है, क्योंकि जिस संस्था के ‘आगे’ सरकार शब्द जुड़ा है, उस पर जनता का विश्वास नहीं रहा है। तात्पर्य है कि अपनी जरुरतों के लिए सरकार को पैसा भी दों और जरुरते पूरी करने के लिए अन्य उपाय करों। इस दोहरी मार से आम भारतीय त्रस्त है।
पिछले छिंयासठ वर्षों में सरकार विकास के लिए कर्इ परियोजनाएं लायी। सरकारी उपक्रमों के हाथी पाले। इन परियोजनाओं के लिए विदशों से कर्ज लिया गया। परियोजनाओं में जितना पैसा खर्च किया गया, उससे अधिक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। सरकार से जुड़ा हुए तंत्र मालामाल हो गया। ठेकेदार ठेका लेने के लिए रिश्वत देता है। उसके द्वारा किये गये घटिया व अधिक लागत के काम को पास कराने के लिए रिश्वत बांटता है। विकास कार्य याने सार्वजनिक धन की बंदरबाट।
दुर्भाग्य से यह सारा खर्च जनता ओढ़ रही है। विदेशी कर्ज का भार, परियोजनाओं की लागत का भार, रिश्वत का भार। भार निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इस बोझ को ढो़ते-ढो़ते वह टूट गयी है। इससे निज़ात मिलने की कोर्इ सम्भावना नहीं है। क्योंकि जो लोग देश की सेवा करने के लिए राजनीतिक पार्टियां बना कर वोट लेने आते हैं, उनका मकसद  सेवा नहीं, सार्वजनिक धन और प्राकृतिक संसाधनों को लूटना है। जब तक लूटरे अपने मकसद में कामयाब होते रहेंगे, देश की गरीबी मिटेंगी नहीं। जनता के कष्ट कम होने के बजाय बढ़ते  जायेंगे। जनता हमेशा सुखी जीवन जीने के लिए तरसती रहेगी।
लूटेरे निरन्तर अपने मिशन में सफल इसलिए होते हैं, क्योंकि वे क्या कर रहे हैं और उन्होंने क्या किया है, इसे कभी जनता के समक्ष नहीं रखतें। वे कभी नहीं बताते कि देश की गरीब जनता की जेब से टेक्स के रुप में जो पैसा निकाला गया था, उसका हिसाब यह है। यह भी नहीं बताते कि कितना पैसा खर्च हुआ और कितना रिश्वत की भेंट चढ़ गया। वे सिर्फ वोटों के लिए हमारी पहचान उजागर करते हैं। यह बताते कि हमारा धर्म क्या है। जाति क्या है। हम अगड़े हैं या पिछड़े है। हम आदिवासी, दलित या स्वर्ण है।  हम किस प्रान्त में रहते हैं और कौनसी भाषा बोलते हैं। वोटों के लिए वे हमे बांटते हैं और हम बंट जाते है। वे चुनाव जीत जाते हैं। सरकार बना लेते हैं। सरकार बनाने के बाद उन्हें न तो हमारा धर्म याद रहता है और न ही जाति। उन्हें सिर्फ यह याद रहता है कि सार्वजनिक धन को कैसे लूटा जाय और कैसे अपने और अपने परिवार के लिए अकूत धन संपदा बटोरी जाय।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम लोगों की असली सूरत पहचानने में हमेश गलती करते रहें। हमारी जेब से पैसा निकाल कर समृद्ध होने वाले राजनेताओं की जनसभाओं में हम भीड़ बन कर जाते हैं और उनकी बातों पर ताली बजाते हैं। वे अब हमे आश्वस्त कर रहे हैं कि हम गरीबों के मसीहा हैं। हम देश की जनता को भूखें नहीं मरने देंगे। आधि नहीं पूरी रोटी खिलायेंगे। हम उनसे यह पूछने का साहस नहीं कर पाते कि पहले यह बताओं की हमें गरीबी किसने उपहार में दी ?  हमे कौन अब तक लूटता रहा है ? हमारी बदहाली का जिम्मेदार कौन है ? जो पार्टी और उससे जुड़े नेताओं ने  अधिकांश समय याने लगभग पचपन वर्षों तक इस देश पर शासन किया और भारत की गरीबी और अभावों के जन्मदाता है, उन्हें गरीबों के आंसू पौंछने का अधिकार हम क्यों देते हैं ? वह समय कब आयेगा जब उनकी बातें सुनना बंद करेंगे और उनसे सवाल पूछेंगे।
दस वर्षों से एक पार्टी और उसका गठबंधन सरकार चला रहे हैं। फिर अपनी सरकार बनाने के लिए अधिकार मांगने जनता के पास आ रहे हैं। क्या यह जनता को यह अधिकार नहीं है कि वह उनसे पूछे कि आपने जनता से दस वर्षों की अवधि के दौरान टेक्स के रुप में कितना धन लिया ? उस धन को कहां-कहां खर्च किया और उसके क्या सुफल प्राप्त हुए ? जनता के धन से जो आपने परियोजनाएं आरम्भ की वे पूरी हुर्इ या नहीं ? यदि नहीं हुर्इ है, तो जनता का कितना धन उसमें अटका पड़ा हुआ है ? यह बतार्इये कि आपके शासन काल के दौरान जो बड़े-बड़े ऐतिसासिक घोटाले उजागर हुए हैं, उसके कारण क्या है ? क्या सार्वजनिक धन की लूट में आपकी हिस्सेदारी नहीं है ? सच को उजागर करने में क्यों आप अवरोध खड़े कर रहे हैं ? यदि आप सच को छुपाने का प्रयास कर रहे हैं तो निश्चय ही आपकी नीयत में खोट हैं, फिर क्यों आप शासन करने का फिर अधिकार मांग रहे हैं ?
हमारे यहा परम्परा है कि बाप भी बेटे से पैसों का हिसाब पूछता है। हिसाब जानने के लिए न तो संबंधो और न ही धर्म और जाति के आधार पर छूट दी जाती है। अत: पहले हमे हमारे पैसा का हिसाब दों, फिर दूसरी बातें करों। आपका प्रतिद्वंद्वी दल कैसा है और उसके नेता कैसे हैं, उससे हमे कोर्इ मतलब नहीं। पहले हम आपके द्वारा किये गये कार्यों का विवरण मांग रहे हैं। देश की गरीब जनता का धन लूट कर उसे और गरीब बनाया है, उसका हिसाब मांग रहे हैं। यदि सार्वजनिक धन की लूट के कारण ही महंगार्इ नहीं बढ़ी है तो इस बारें में सार्वजनिक रुप से स्पष्टीकरण दें, अन्यथा यह माना जायेगा कि आप अपना अपराध स्वीकार कर रहें हैं और अपनी सफार्इ में कुछ नहीं कहना चाहते। सिर्फ साम्प्रदायिक शक्तियां और धर्मनिरपेक्षता की रट लगाने और गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने की थोथी बातें करने से काम नहीं चलेगा। एक सौ पच्चीस करोड़ भारतीय अपना भाग्य,  अरबों रुपये का राजकोष और प्राकृतिक संस्थान के कार्य निष्पादन का अधिकार जिसे सौंपेगी, तब जाति, धर्म और प्रान्त के नाम पर भावुक हो कर आपके पक्ष में निर्णय नहीं करेंगी।

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