Wednesday 9 October 2013

मोदी और भाजपा नहीं, तो फिर कौन……….. ?

मोदी और भाजपा को यदि जनता व्यापक समर्थन नहीं देंगी, तो फिर किसे देगी ? फिर उसी मां-पुत्र की जोड़ी और उससे जुड़ी दरबारियों की चौकड़ी को या तीसरे मोर्चे की खिचड़ी को  ? दरअसल दस वर्ष के कुशासन का दर्द जनता भोग रही है, फिर उसी विकल्प को चुनना उसके लिए दुखदायी होगा। यह शब्दाडम्बर नहीं, हकीकत है- यदि ऐसा होता है तो देश विनाश के गर्त में गिर जायेगा। लोकतांत्रिक परम्पराओं पर गहरा आघात लगेगा। देश बर्बादी और कंगाली के कगार पर पहुंच जायेगा। संवैधानिक संस्थाओं के आगे से ‘संवैधानिक’ शब्द हटा कर ‘अनुचर’ शब्द  जोड़ना पडे़गा। अर्थात संवैधानिक संस्थाएं अनुचार संस्थाएं बन जायेगी।
यदि पार्टी के युवराज को सम्राट बना कर राज तिलक कर दिया गया, तो यह भारत के इतिहास की एक अशुभ घड़ी होगी। लोकतंत्र का सूरज अस्ताचल को चला जायेगा और राजतंत्र का सूर्योदय होगा। जनता सम्राट के दर्शन के लिए तरस जायेगी। सम्राट न तो संकट की घड़ी में कोर्इ निर्णय लेंगे और न ही देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए माथा-पच्ची करेंगा। वे पद पा कर संतुष्ट हो जायेंगे। आधा समय वे विदेशों की सेर सपाटों में गुजारेंगे। राजमाता अपने दरबारिंयो की सलाह से राजकार्य सम्भालेंगी।
एक अन्य विकल्प है- मुलायम सिंह यादव और उनके तीसरे मोर्चे की खिचड़ी। इस खिचड़ी के पकने की सम्भावना बहुत कम हैं, क्योंकि न तो हंड़िया का जुगाड़ कर पायेंगे ओर न ही चांवल का । अत: खिचड़ी ख्यालों में ही पकेगी और यदा-कदा वे इसका ज़िक्र करते रहेंगे। परन्तु प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा मुलायम सिंह जी के मन में हमेशा दबी रहेगी। यदि कांग्रेस  इतनी कमज़ोर हो जायेगी कि वह सरकार बनाने में पूर्णतया असमर्थ रहेगी, तब सांम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर करने के लिए मुलायम सिंह जी को चौधरी चरण सिंह या चन्द्रशेखर बना देगी। यदि ऐसी सरकार किसी भी तरह बन भी गयी, तो यह देश के लिए दुर्भाग्यजनक स्थिति होगी। क्योंकि सरकार बनेगी भी गिरने के लिए। उम्र बहुत छोटी होगी। आज चल गयी तो कल गिरने की सम्भावना  रहेगी।  अस्थिर सरकारें हमेशा घातक होती हैं, क्योंकि वे अपनी कोर्इ नीतियां नहीं बना पाती। उन्हें लागू नहीं कर पाती । हमेशा सहमी-सहमी रहती है। भारत की जनता ऐसी परिस्थितियां पैदा नहीं करेंगी, ऐसी आशा है।
अत: अब एक ही अंतिम विकल्प हमारे पास बचा है- इस बार मोदी और उनकी  भाजपा  को मौका देने का ।  भारत के राजनैतिक विश्लेषक, विचारक और मीडिया इस उत्तर को स्वीकार नहीं करेंगे। जनता की मन: स्थिति समझे बिना, वह अपने विचारों को ही अभिव्यक्त करेंगे। अधिकांश का मत एकपक्षीय होगा और वे किसी एक रणनीति के तरह मंथन करते हुए दिखार्इ देंगे। परन्तु वास्तविकता यह है कि भारत को इस समय एक स्थिर, मजबूत और संवेदनशील सरकार चाहिये, जो पूरे मनोयोग से देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपना दायित्व निभायें।
परन्तु विडम्बना यह है कि भाजपा सभी जगह नहीं है और जहां है, वहां कांग्रेस से उसका कड़ा मुकाबला है। भाजपा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है। जहां पर भाजपा का कांगेस से सीधा मुकाबला है, वहां उसका पूरी तरह सफाया कर दिया जाय, तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी, जो उसे सत्ता के नज़दीक ले जायेगी। सत्ता पाने की उसकी राह आसान हो जायेगी। आशा है भाजपा अपनी रैलियों के अभियान के समाप्त होने के बाद इसी रणनीति पर काम करेगी, तो यह ज्यादा श्रेयस्कर होगा।
कांग्रेस बिहार और उत्तरप्रदेश में हाथ पैर मार रही है, किन्तु उसके सपने साकार नहीं होंगे। मुजफ्फनगर जा कर पीड़ितो के आंसू पौंछने और मायावती को दलितों का नेता नहीं मानने से ऐसा कुछ नहीं होगा कि उसकी बार्इस सीटों में और वृद्धि हो जायेगी। वह अपनी आधि सीटें भी बचा लेंगी तो वह  गनीमत होगा। नीतीश कुमार की मित्रता से कोर्इ लाभ होने वाला नहीं है। ममता और पटनायक अपने किले में उसे सेंध लगाने नहीं देंगे। आंध्र का किला वैसे भी ढह रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद एक मौसमी पार्टी का अंत हो जायेगा। इसके बाद दिल्ली जीतना कांग्रेस के लिये आसान नहीं होगा। कर्नाटक और केरल से थोड़ी बहुत आशाएं बची है, परन्तु  राजस्थान, मघ्यप्रदेश और गुजरात में पहले जैसी स्थिति नहीं बनेगी।
अत: देखा जाय तो कांग्रेस के लिए परिस्थितियां सभी जगह प्रतिकूल बन रही है और भाजपा के लिए अनुकूल, किन्तु भाजपा  मोदी की रैलियों में उमड़ रही भीड़ को देख कर मस्त हो रही है और उसके नेताओं को जनता के पास जाने का अभी तक समय नहीं मिल रहा है। कुशासन से असंतुष्ट भारतीय जनता मोदी की को हीरो बना रही है, किन्तु लाखों शहरी जनता के आधार पर चुनाव नहीं जीते जाते। चुनाव जीतने के लिए करोड़ो मतदाताओं को अपने से जोड़ना पड़ता है। सघन रचनात्मक अभियान से ही यह सम्भव हो सकता है।
राष्ट्र को संकट से बाहर निकालने के भाजपा नेता सक्षम हैं, किन्तु अपनी क्षमता का उपयोग करने के लिए पता नहीं क्यों उन्हें परहेज हैं। राजस्थान और दिल्ली को पुन: जीतना और मघ्यप्रदेश और छतीसगढ़ में से किसी एक प्रदेश को हथियाना कांग्रेस की रणनीति का एक भाग है और इस पर कांग्रेसी परिश्रम भी कर रहे हैं। किन्तु भाजपा नेताओं की यह सोच है कि हम अपने दोनों प्रदेशों में वापस जीत लेंगे और कांग्रेस के प्रदेश उससे छीन लेंगे।  किन्तु यह अति आत्मविश्वास की पराकाष्ठा है। राजनीति में अति आत्मविश्वास घातक होता है। भाजपा पहले भी चोट खा चुकी है, किन्तु नहीं सम्भलने की उसने कसम भी खा रखी है।
एक बड़ी नाव में मौदी बिठा कर उसके हाथ में चप्पु थमाने से नाव किनारे पर नहीं पहुंचेगी। सभी का सहयोग ही उसे किनारे तक पहुंचायेगा। किन्तु अपने नेता की जय-जयकार करने के बजाय अपने हाथों में पकड़े हुए चप्पुओ को भी चलाना आवश्यक होता है। मोदी के अनुयायी तो जनता और कार्यकर्ता बन जायेंगे, किन्तु भाजपा नेताओं का उनका सहयोगी बन कर कठोर परिश्रम करने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर निकलना पड़ेगा। दो बार धोखा चुके हैं, अब यदि तीसरी बार धोखा खा गये, तो यह धोखा न केवल पार्टी के लिए वरन इस देश की जनता के लिए भी बहुत बड़ा आघात होगा। अत: भाजपा नेताओं को अपने लिए नहीं, अपनी पार्टी के लिए नहीं, देश के लिए चिंतित होना आवश्यक है। हवा में कुलांचे भरने से मंजिल नही मिलती। मंजिल पाने के लिए एक -एक कदम सोच समझ कर रखा जाता है, जिससे लक्ष्य आसान बन जाता है।
यह सब कुछ इसलिए लिखा गया है, क्योंकि राजस्थान में जहां विधानसभा के चुनाव होने वालें हैं, कांग्रेस ने अपनी ताकत झोंक दी है, किन्तु भाजपा नेता अभी किनारे खड़े लहरे ही गिन रहे हैं। यदि ऐसी ही स्थिति लोकसभा चुनावों के दौरान बन गयी, तो यह स्थिति दुर्भाग्यजनक होगी। इस समय मोदी और भाजपा को सत्ता पाने की ललक हो सकती है, परन्तु भारत की जनता को एक शासन को उखाड़ने के लिए भाजपा और मोदी की जरुरत है। अत: उन्हें देश की नब्ज को पहचानते हुए जनता से अपने आपको जोड़ने और उसे अपनी बात समझाने के लिए गम्भीर प्रयास प्रारम्भ कर देने चाहिये।       लक्ष्य पाने की आशा संजोय रहने के बजाय लक्ष्य तक पहुंचने के गम्भीर प्रयास ही लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायक बनते हैं।

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