Saturday 26 December 2015

वह सुवह कभी तो आएगी - हमें उस सुवह का इंतजार है

नया सवेरा। क्षीण आशा की नन्ही किरण, बदलाव की बयार बहने का संकेत दे रही है। ताजा हवा का झोंका सुकून दे रहा है- बहुत हो चुका, अब और नहीं। नफरत की दीवार की मजबूती में नहीं, इसे ढहाने की कोशिश से करोड़ो जिंदगियो की तक़दीर बदल जायेगी। वह सुबुह कभी तो आयेगी- हमे उस सुबुह का इंतज़ार है ।
दो अलग-अलग नाम के देश बन गये, परन्तु बदला कुछ नहीं। न तहजीब बदली, न जुबान बदली। न लहू बदला, न लहू का रंग बदला। रावी व चिनाब वैसी की वैसी ही रही। हिन्दुस्तान से पाकिस्तान आ कर वह अपनी पहचान बदल नहीं पायी। वे पाकिस्तानी नदियां नहीं कहलायी। वे चिनाब और रावी ही रही। उनके पानी का वेग वही रहा। उसका रंग पाकिस्तानी नही बन पाया। हिन्दुस्तान की माटी अपने साथ ले कर आती रही। माटी की खुशबू अपनो की याद दिलाती रही। उस माटी को नहीं कह पाये- दुश्मन देश की माटी इधर क्यों बह कर आ रही हो ? हिमालय से आने वाली ठंडी हवाओं को रोक नहीं पाये। उसे नही कह पाये- उधर ही रहो, यह मुल्क अब तुम्हारा नहीं रहा है।
अड़सठ बरस बीत गये। सौ में सिर्फ बतीस कम। सौ बरस भी बीत जायेंगे, परन्तु हमें अपनी गलतियों को समझने में तब भी देर लगेगी। हम अपनी नासमझी की की़मत का अंदाज़ा भी नहीं लगा पायेंगे। तब तक रावी और चिनाब में बहुत पानी बह जायेगा। और इस पानी में बहुत सारा लहू भी बह जायेगा। पानी में घुल कर लहू  का रंग लाल नहीं रहेगा, परन्तु हमारी नज़रे हमेशा धोखा खाती रहेगी। हम हरदम लुटे-पिटे अपने आपको कोसते रहेंगे, पर यह नहीं सोच पायेंगे कि आगे क्या करना है।
सतसठ वर्षों में चार पीढ़ियां  दर्द का मंजर देख चुकी है। एक पीढ़ी ने बंटवारें की तक़लीफ भोगी। एक पीढ़ी को नफरत की दीवार को मजबूत करने के लिए लडे़ गये जंग के तेवर झेलने पड़े। युवा पीढ़ी दहशद के खूनी खेल की पीड़ा झेल रही है। और वो कोंपले, जो अभी-अभी प्रस्फुटित हुई है- तीन पीढियों की बरबादी का इतिहास पढ़ रही है।
कोई इन्हें आगे बढ़ कर समझाता नहीं कि बहुत हो चुका, अब बस करों। जो बंठा ढ़ार होना था, हो गया- अब बाकी भी क्या बचा है? चार जंग लड़ लिये। बीस बरस से न खत्म होने वाला, एक लम्बा जंग लड़ रहे हैं। इस जंग में कई बेकसूर मारे दिये गये, पर मिला कुछ नहीं। और कभी  कुछ हांसिल भी नहीं होगा।  जिनके अपनो को छिना, उन्हें रुलाया और उनके आंसुओं को देख-देख कर हैवानियत हंसती रही- बस।
खुदा की जन्नत पर सियासी खेल के दांव लगा-लगा कर थक गये, पर हमेशा बाजियां बे-नतिजा रही। अब  खुदा की जन्नत को जन्नत ही रहने देने में भला उन्हें क्या एतराज है? नहीं, वे ऐसा नहीं करेंगे। यदि ऐसा किया गया, तो नफरत की दीवार ढ़ह जायेगी। सियासत का असली चेहरा बेनकाब हो जायेगा। वे बेचारे कहीं के नहीं रहेंगे। क्योंकि वे अनाथ हो जायेंगे। उनके सारे मनसूबों पर पानी फिर जायेगा।
पर हम उन्हें कह तो सकते हैं- बहुत कुछ जल चुका है, परन्तु मिला कुछ नहीं। वहां अब भी जल रही आग हैं।  धुआं है। रुलाई है। आंसुओं का सेलाब है। और अंदर ही अंदर दबी हुई टीस का दर्द है। जवान बेटों के जनाजों का बोझ ढ़ोने वाले थके हुए बुड्ढे़ कंधे हैं। नफरत की कीले लगे ताबुतों में लिटाये गये शहीद जवानों की अंतिम समय में निकली आहें हैं। ये ताबुत जब घाटी से मैदानी गांवों में ले जाये जाते हैं, तब उनके परिजनों की रुलाई बरबस एक सवाल पूछती हैं- कभी यह ताबुत लाने का सिलसिला थमेगा ?
बहुत समय बीत गया, अब बैठ कर हिसाब करने का वक्त आ गया है- क्या खोया-क्या पाया। बहीखाता देखने पर मालूम होगा कि मुनाफा तो कुछ हुआ ही नहीं, अलबता घाटा ज्यादा दिख रहा है। दुनियां में सबसे ज्यादा गरीब होने का खिताब भी हमारे नाम चढ़ा हुआ है। दहशदगर्दी में भी हम सबसे आगे हैं। खून खराबे से सबसे ज्यादा लोग भी हमारे दोनो मुल्कों में मारे जाते हैं। महंगाई और तंगहाली का हाल भी दोनो ओर एक सा है।
बहुत ढूंढ़ लो, फिर भी हमें बही खाते में सिर्फ मौते, गरीबी, और दहशद की इबारत लिखी मिलेगी।  इसे पढ़ लो, और समझ लो। और भविष्य के बारें में भी सोचों कि चार पीढ़ियों ने तो घाटा उठा लिया और पांचवी, छठी भी उठायेगी और यह सिलसिला बदस्तुर जारी रहेगा, या इस पर कभी विराम लगेगा। हां, हम चाहें तो इस पर विराम लगा सकते हैं। हमे सिर्फ इस बात को समझना है कि कौन अपना है और कौन पराया है। कौन हमारा दुश्मन है और कौन हमारा दोस्त है। जब इस हक़ीकत से हम रुबरु हो जायेंगे तब, जो धुंध छायी हुई है- यकायक हट जायेगी। एक नयी सुबहु होगी। यह सुबुह अमन का पैगाम ले कर आयेगी। तब कुछ भी समझाने के लिए बंदूकों से गालियां नहीं दागी जायेगी। सीमा पर खड़ी फौज दुश्मन की नज़र से नहीं दोस्त की नज़र से एक दूसरे को निहारेगी। खुदा ने हमे सांसे बख्सी है, उसे तोड़ने का हक भी उसी को है। जो बिना वजह खुदा का काम खुद करने का हिमाकत करता है, वही इंसानियत का असली दुश्मन है।
गरीबी और अभाव सबसे बड़ी मानवीय दुर्बलताएं है। दुनियां में उसी देश को सम्मान की नज़रों से देखा जाता है, जो इन दोनों दुर्बलताओं से मुक्ति पा लेता है।  फौज की ताकत बढ़ाने से ये ये दुर्बलताएं बढ़ेगी ही,  इनमें कमी नहीं आयेगी। अत: अब पाकिस्तान के शासकों को जनता की नब्ज पहचाननी होगी। यह बात भी समझनी होगी, भारत के साथ दुश्मनी निभाने से कुछ भी हांसिल होने वाला नहीं है। सौ साल और दुश्मनी निभायेंगे,  तो भी सिवाय बरबादी के  कुछ नहीं मिलेगा। उन्हें बरबादी और खुशहाली दोनों में से एक को चुनना है।
हम इधर रहते हैं या उधर- हमारी तकलीफे एक सी है। हमारी समस्याएं साझी है। दोनो ओर जो लोग सियासत से जुडे़ हैं, उनके चेहरे एक से हैं, फिर क्यों हम हम एक दूसरे को नफरत की नज़रों से देखते हैं। कुछ भी हो, हम एक हो कर, एक आवाज़ तो उठा ही सकते हैं- हमे दहशदगर्दी नहीं, अमन चाहिये। बम नहीं, खुशहाली चाहिये। नफरत नहीं मोहब्बत चाहिये। हम उस सुबुह का इंतजार कर रहें’ जब नफरत की दीवार ढ़ह जायेगी। सारे गिलवे-शिकवे दूर हो जायेंगे। एक  दूसरे से दोस्ती का हाथ आवाम बढ़ायेगा। इस अचरज को दूर बैठे हुए हथियारों के सौदागर, वे विदेशी भी देखेंगे, जिन्होंने जानबूझ कर कपट से  हमें बांटा था, ताकि हम सदा कमजोर बने रहें। वे दुष्ट व्यापारी हमें एक दूसरे लड़ाने के लिए अपने हथियार बेचते रहें, जिससे उनकी समृद्धि बढ़े और हमारी गरीबी।
आवाम की की खुशहाली  और मुल्क की तरक्की के लिए मन में नेक नीयत रखते हुए पाकिस्तानी शासक  दोस्ती का हाथ बढ़ायेंगे, तो इस उपमहाद्वीप की  फ़िज़ा बदल जायेगी। एक झटके से नफरत की दीवार ढह जायेगी। एक नयी सुबह होगी।  वह सुबह कभी तो आयेगी। हमे उस सुबह का बेसब्री से इंतजार है, जब करोड़ा जिंदगियों की तकदीर बदल जायेगी।

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