Monday 5 December 2016

विहंगम योग

विहंगम योग आज सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये ही नही, बल्कि स्वस्थ जीवनयापन के साधन के रुप में भी मान्यता एंव लोकप्रियता प्राप्त करता जा रहा है । वेदों के अनुसार योग का अन्तिम लक्ष्य आत्मा एंव परमात्मा का संयोग है । योग के इस श्रेष्ठतम रुप को विहंगम योग या ब्रह्मविद्या कहा जाता है ।


विहंगम योग क्या है?
 
योग-योग सब कोई कहै योग न जाना कोय ।अधर्व धार जब उधर्व चले योग कहावे सोय ॥विहंगम योग आज सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये ही नही, बल्कि स्वस्थ जीवनयापन के साधन के रुप में भी मान्यता एंव लोकप्रियता प्राप्त करता जा रहा है । आज ज्यादातर भारतीय योगी आसन प्राणायाम सिखाने में लगे है, जो की योग के अंग मात्र है, सम्पूर्ण योग नहीं। हठयोग, मंत्रयोग, लययोग तथा राजयोग यह सब योग की कुछ प्रणालियां है, जो कि भारत मे प्रचलित है । ये सभी प्राकृतिक योग हैं, इनकी साधना शरीर, मन, बुद्धि तथा प्राण के प्राकृतिक धरातल पर होती है, जिससे इनकी शक्तियाँ विकसित हो जाती है । वेदों के अनुसार योग का अन्तिम लक्ष्य आत्मा एंव परमात्मा का संयोग है । योग के इस श्रेष्ठतम रुप को विहंगम योग या ब्रह्मविद्या कहा जाता है ।

योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ या सम्बन्ध, जोकि आत्मा व परमात्मा का ही होता है, क्योंकि जोड़ हमेशा चेतन से चेतन का होता है, जो नित्य रहता है, तथा आत्मा व परमात्मा दोनो ही चेतन है, इसलिए इन दोनो का योग ही नित्य व शाश्वत है । विहंगम योग तब घटित होता है, जब आत्मा मन व बुद्धि के बन्धन से मुक्त होकर अपना शुद्ध चेतन स्वरुप ग्रहण कर लेती है । परमात्मा शुद्ध चेतन तत्व है, और मन-बुद्धि की पहुँच से परे है क्योंकि मन व बुद्धि जङ है, तथा आत्मा की चेतना से सक्रिय होती है । अतः किसी जड़ तत्व की पहुँच चेतन तत्व तक नही हो सकती, उससे सम्बन्ध स्थापित होना तो दूर की बात है । अतः प्राकृतिक योग विहंगम योग की ऊँचाई को प्राप्त नही कर सकते । जिस प्रकार पक्षी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के विरुध हवा में विचरण करता है, उसी प्रकार आत्मा की चेतना अपने प्राकृतिक आधार अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि को छोड़कर असीम चेतन मंडल में विचरण करती है । महर्षि पंतजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध (मानसिक क्रियाओं का रुक जाना )को योग कहा है, यह राजयोग की परिभाषा है । राजयोग सारे प्राकृतिक योगों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और विहंगम योग का प्राथमिक सोपान है । वास्तव में जहां राजयोग समाप्त हो जाता है वहीं से विहंगम योग का प्रारम्भ होता है ।
 


हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य.
 
लख चौरासी भोग के पौ पे अटके अ।य ।अबकी पासा ना पड़े तो फिर चौरासी जाय ॥ उपरोक्त दोहे का मतलब यह है कि चौरासी लाख योनियौँ को भोगने के बाद जब परमात्मा जीव पर दया करता है तो यह मानव जीवन प़दान करता है और इसका उद्देश्ये परमात्मा को प़ाप्त करना होता है । लेकिन मानव सँसार मे अ।ने के बाद परमात्मा को भूल जाता है और वह संसारिक सुखों को प़ाप्त करना ही अपने जीवन का  उद्देश्य.मान लेता है ।

अ।पने देखा होगा कि मानव हर वक्त किसी सुख या खुशी की तलाश मे रहता है ओर वह संसार में उपलब्घ वस्तुओं में उस सुख को तलाश करता है । इस के लिए वह संसार से उन सभी वस्तुऔ को जुटाता है जो उसे खुशी दे सके ओर सभी वस्तुएं थोड़ी देर के लिए ही सही खुशी प़दान करती है लेकिन यह खुशी सास्वत नही होती ओर अगले ही क्षण समाप्त हो जाती है । क्या अ।पने सोचा है, कि ए॓सा क्यों होता है ? क्यो कि अ।त्मा शरीर घारण करने से पहले जब परमात्मा के सानिघ्य मे रहता था तब वह परमानन्द का उपभोग करता था इसलिए वह उस अ।नन्द की तलाश इस नस्वर संसार मे करता है ओर उसे पाने के लिए संसारिक सुखों व सुविघाओं को इकठ्ठा करता है, लेकिन वह भुल जाता है कि संसार मे वह सुख नही है । इसी तरह जीव अपना पूरा जीवन बीता देता है लेकिन उस परमानन्द को प़ाप्त नही कर पाता है जिसका पान उसकी अ।त्मा पहले कर चुकी है, क्योंकि वह अ।नन्द इस संसार में नही है, वह तो परमात्मा के पास ही है ओर इसे पाने के लिए तो परमात्मा को पाना होगा ओर उसे पाने के लिए, वह विघा जानने की अ।वश्यकता होती है, जिससे उसे पाया जा सके ।

इस संसार में दो तरह की विघांए होती है पहली अपरा विघा व दूसरी परा विघा । संसार मे जीवन यापन के लिए अपरा विघा की अ।वश्यकता होती है (जिसमे वेद भी सम्लित है )तथा परमात्मा को पाने के लिए परा विघा की । यह भी पूण॔तः वैज्ञानिक विघा है, इसे मघु विघा या ब़म्ह विघा भी कहते हैं । सदगुरु इस विघा का अ।चाय॔ होता है, जो इस विघा को जानता है । अतः सदगुरु की खोज कर यह विघा सीखनी चाहिए ताकि अ।त्मा को जिस परमानन्द की तलाश है, वह उसे पा सके ।


 मानव शरीर के कार्य 

आज दैनिक जीवन में कम्प्यूटर का महत्व तो आप सभी जानतें हैं । इसका कार्य करने का तरीका भी जानते हैं । कम्प्यूटर में एक हार्ड डिस्क, रैम, रोम, प्रोसेसर इत्यादि सभी चीजें होती है तथा सभी का अपना कार्य होता है । कुछ इसी प्रकार हमारा शरीर भी कार्य करता है । उसमें भी मन, बुद्धि, चित व अहंकार ये चार अन्तःकरण है तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ क्रमशः हाथ, पाँव, पायू, उपस्थ, वाणी है तथा पाँच ही ज्ञानेन्द्रियाँ क्रमशः नाक, कान, जीभ, आँख व त्वचा है । इन सब का अपना कार्य है ।

चित मानव शरीर में स्थापित एक हार्ड डिस्क है जो हमारे सामने आने वाले हर दृश्य, संवाद तथा विचार को हमारे न चाहते हुए भी रिकार्ड कर लेता है । चित मे जो विचार संग्रहित होते है उन से ही हमारे संस्कार बनते हैं तथा उसी के अनुसार हम अपना कर्म करते हैं ।

जब भी हमें कोई कार्य करना होता है तो चित मे एक विचार उठता है जिसको हमारा मन पकड़ता है तथा विशलेषण करने के लिए बुद्धि को दे देता है और बुद्धि उसका विशलेषण करती है कि इस कार्य को कैसे सम्पन्न करना है और अपना निर्णय पुनः मन को दे देती है। मन उस निर्णय के अनुसार उस कार्य को सम्पन्न करने का आदेश इन्द्रियों को देता है और इन्द्रियों के माध्यम से वह कार्य सम्पन्न होता है और कार्य सम्पन्न होने के बाद यह विचार कि कार्य "मैने किया" यही अहंकार है । इस प्रकार जो कार्य किया गया उसका फल जैसा भी हो अच्छा या बुरा हमारी आत्मा को भोगना पड़ता है । जिसकी इस कार्य को करने मे कोई भुमिका नही होती है । इसका दोष केवल इतना होता है कि मन जिस शक्ति का उपयोग करता है वह आत्मा की होती है ।

यदि हम अपने मन पर नियन्त्रण स्थापित करलें तो यह कोई ऐसा काम नही करेगा जिसका फल अशुभ हो, लेकिन मन पर नियन्त्रण करना भी इतना आसान नही है । इसके लिए हमे ऐसे गुरु की खोज करनी होगी जो यह बताये की मन पर नियन्त्रण कैसे किया जा सकता है ।
इस तन में मन कहाँ बसे निकस जात किस और ।
गुरु गम हो तो परख ले नही तो गुरु कर ओर ॥
अथार्त इस शरीर में मन का निवास कहाँ है, यह ज्ञान हो जाने पर ही इसको वश मे किया जा सकता है, जब तक हमे इसके निवास का ज्ञान ही नही होगा हम उसे वश मे कैसे कर सकतें हैं । अतः हमारे गुरु वह हो जिन्हे यह पता हो कि इस शरीर में मन का निवास कहाँ हैं । उसके बाद वह हमें बतलाए कि इसे कैसे वश मे किया जाये ।

 आत्मा का शरीर

 यह तो हम सभी जानतें हैं कि मानव शरीर आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल इन पाँच तत्वों सें निर्मित है । लेकिन क्या यह पता है कि आत्मा के भी छः देह क्रमशः हँस देह, कैवल्य देह, महाकारण देह, कारण देह, सूक्ष्म देह तथा स्थूल देह होती है ।स्थूल शरीरःइसका निर्माण पाँच तत्वों आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल से होता है । इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ क्रमशः कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा नासिका होती है, जो शब्द स्पर्श, रुप, स्वाद तथा गंध के सवेंद ग्रहण करती है और पाँच कर्मेन्द्रियाँ क्रमशः वाणी, हाथ, पांव, लिंग तथा गुदा होती हैं जो बोलने, पकड़ने, चलने, मूत्रत्याग एवं प्रजनन करने तथा मल त्याग करने की क्रियाँए सम्पन्न करती है । इनके अतिरिक्त चार भीतरी इन्द्रियाँ (अन्तःकरण;) - मन, बु‍ध्दि, चित्त तथा अंहकार होते है । पाँच प्राणः प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान व पाँच उप प्राणः कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त होते हैं । इन सभी में मन महत्वपूर्ण है ।सुक्ष्म शरीरःयह स्थूल शरीर से भिन्न है क्योंकि इसमे केवल उन पाँच तत्वों का अभाव होता है जिनसे स्थूल शरीर का निर्माण होता है बाकी सभी इन्द्रियाँ, प्राण व अन्तः करण बीज रुप में विद्यमान रहतें हैं । कारण शरीरःकारण शरीर में मन, बुद्धि व प्राण का अभाव हो जाता है । आत्मा का यह शरीर कारण शरीर कहलाता है । यानि इसमें चित्त, अहंकार व प्रकृति के तीन गुण सत, रज व तम विद्यमान रहतें है।महाकारण शरीरःइस शरीर में प्रकृति के तीनो गुणो का भी अभाव हो जाता है और आत्मा असीमित बल व तेज को प्राप्त करता है ।कैवल्य शरीरःइस शरीर में आत्मा परमात्मा सें सयुंक्त होकर असीम आनंद को प्राप्त करता है और परमात्मा सें सयुंक्त होने के कारण परमात्मा के सारे गुणो को ऐसे ही धारण कर लेता है जिस प्रकार लोहा अग्नि के सम्पर्क में आने पर अग्नि के सारे गुणो को धारण कर लेता है और इस स्थिति में आत्मा में "मैं ब्रह्म हूँ " ऐसे भाव का उदय होता है । आत्मा का यह अहंकार भाव अज्ञानवश होता है और यह भाव ही आत्मा के पतन का मुख्य कारण है ।हँस शरीरःयह आत्मा की शुद्ध अवस्था है । जब आत्मा परमात्मा के सानिध्य में योग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर अपने इस अहंकार भाव का त्याग करता है तो परमात्मा के साथ स्वामी सेवक का सम्बन्ध स्थापित होता है । आत्मा की यह अवस्था हँस अवस्था होती है । इस अवस्था को प्राप्त कर आत्मा परमानन्द के अनन्त सागर में गोते लगाता है ।
 आपको अपने विषय में पता है ..? अगर किसी से पुछा जाये कि तुम कौन हो ? वह अपना नाम बताएगा कि मैं अमुक व्यक्ति हूँ या अमुक जाति का हूँ लेकिन कभी आपने सोचा है कि हम रोज कहते है कि यह मेरा हाथ है, यह मेरा पाँव है, यह मेरा शरीर है तथा यह मेरी आँख है । कभी एकान्त में बैठकर सोचा है कि यह सब मेरा है लेकिन जो यह कह रहा है कि "यह मेरा है" वह कौन है ? क्या आपने कभी विचार किया है ? शायद नही किया होगा । क्योंकि आपको अपने लिए इतना समय ही कहाँ मिला होगा कि सोच सको कि मै कौन हूँ । आप इसे पढ़कर जरुर सोचना । एकान्त मैं बैठकर सोचने से जवाब मिलेगा तू आत्मा है, तू जीव है, जीवात्म है, तू चाहे किसी भी जाति का हो, कोई भी भाषा बोलता हो या किसी भी धर्म का हो इससे कोई फर्क नही पड़ता है ?
यह जो तेरा शरीर है वह तू नही है, इस स्थूल शरीर के अन्दर सुक्ष्म शरीर, कारण, महाकारण और कैवल्य शरीर भी तू नहीं है । मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार भी तू नही है । न ही तू दस इंन्द्रियां नेत्र, कान, त्वचा, नाक या जीभ ही है और न तू हाथ, पैर, पायु, उपस्थ एवं वाणी ही है । तू न प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान है और न कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त ये पांच उप प्राण ही है ।तू न मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, ब्रह्मरंध्राख्य, आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रार चक्र ही है । तू अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश भी नहीं है । तू तो शुद्ध चेतन, नित्य- अनादि एकदेशीय सत्ता है । तेरा स्वरुप अत्यंत सूक्ष्म, परमाणु से भी छोटा है । तू सर्वत्र, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ सर्व समर्थ नहीं है । तू आनंदाभिलाषी, सत्, चित् स्वरुप आत्मा है । तेरे अंदर अज्ञान का आविर्भाव होने से तू अपने आप को शरीर समझ रहा है । तू अपने आप को ज्ञानी, ध्यानी, पंडित, मौलवी, गुरु या इसी प्रकार का कुछ अन्य समझ रहा है । तू अपने आप को परमात्मा तक मान बैठा है । बता तो सही जिस परमात्मा ने इतनी विशाल, अनंत सृष्टि का निर्माण कर डाला है, जिसकी अनंतता का माप करते - करते तू थका जा रहा है तुझे इसकी थाह का पता नही चल रहा है, वही परमात्मा क्या तू है ? यह तेरे अज्ञान - भ्रम का परिणाम है कि तू नन्ही- सी सत्ता अपने - आपको समग्र सृष्टि में व्यापक ब्रह्म समझ रहा है । कैसी विडंबना है ? कितना धोखा है? तू मन के प्रभाव में आकर मन- मोदक से अपनी क्षुधा को तृप्त करना चाहता है । अभी भी अवसर है । तू सचेत हो जा । अपने आप को पहचान ले । अज्ञान, कर्म तथा जड़- चेतन की ग्रंथि से तू अपने- आप को मुक्त करले, पर यह होगा कैसे ? क्या अपने आप हो जाएगा ? क्या अपने जैसे ही बंधनग्रस्त जीवों को अपना गुरु बनाकर उनके द्वारा तू इन बंधनो से मुक्त हो पाएगा ? जो स्वयं बंधन में है, वह किसी दूसरे बंधनग्रस्त को बंधन से मुक्त कैसे करेगा ? अतः तू खोज कर उस गुरु की जो तुझे अपने आप को जानने का ज्ञान बता दे ।

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